उलझे-बिखरे सब"- अनीता शर्मा

उलझे-बिखरे सब"

उलझे-बिखरे सब"- अनीता शर्मा
कितने उलझे-उलझे हुए सब ,

कितने बिखरे-बिखरे हुए सब।


बनावटी दुनिया में उलझे हुए सब,

दिखावटी सब सज-धज ओढ़ी है।


अंदर से खाली-खाली सब दिखते ,

खोखलेपन में टूट रहे सब भीतर ।


टूट रहे अंदर-अंदर,बाहर चमक-

निराली सी,अजब तेरी कहानी बंदे।


सांसे भी गिनती की दे भेजी रब ने,

उलझनों में उलझ बर्बाद करी सब ।


बची-खुची समेट अंतस की शांति में ,

सुलझी सी जिन्दगी चुन अब जी ले ।


भटकाव बहुत आयेंगे जीवन में,

चमक धमक चौंकाने वाली ।


छुपकर आँसू व्यर्थ बहा मत ,

खुद में खुद की खोज करें सब ।


चिंता तनावमुक्ति सर्वोपरि जीवन में,

सरल-सहज हो अंतस-बाहर ।।


क्या थे?क्या है? क्या हो रहे सब?

पल-भर ठहर :विचार करें सब ।।

---अनिता शर्मा सुधा नर्सिग होम झाँसी

----मौलिक रचना



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