पाँच ऊँगली मिलकर मुठ्ठी बन जाती है
"पाँच ऊँगली मिलकर मुठ्ठी बन जाती है"
नहीं लगता सबको कि हम बिना एहसासों वालें बुत बनते जा रहे है? संवेदना, दयाभाव या परोपकार का झरना हमारे भीतर सूखता जा रहा है,या तो फिर इंसान की फ़ितरत ही शायद मूलतः स्वार्थी रही है। समाज में घट रही गलत घटनाओं के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने की हिम्मत आज कोई नहीं करता, तमाशा देखने सब खड़े रह जाएंगे।
और फिर अब तो एक नया चलन शुरू हुआ है कहीं भी कुछ भी अच्छा बुरा दिख जाए उसकी विडियो बनाकर फेसबुक, वाट्सएप, और इन्स्टाग्राम पर इन्स्टंट अपलोड करने का। अब इसका क्या मकसद है ये तो समझ नहीं आ रहा, पर शायद सनसनी फैलाने के लिए और विडियो ड़ालकर खुद फ़ेमश होने के लिए विडियो बनाकर लोग ड़ालते होंगे। हादसे के शिकार इंसान को बचाने का सोचने की बजाय जैसे विडियो लेना ज़्यादा जरूरी हो।
कोई आज किसीके मामले में पड़ना नहीं चाहता, शायद ये सोचकर कि कौनसा मेरे घर का मामला है, सब भीड़ इकट्ठा करके भीड़ का हिस्सा बन जाते है। कुछ महीने पहले गुजरात के सूरत शहर में एक लड़के ने सरेआम लड़की का कत्ल कर दिया। सारे लोग डर गए क्यूँकि लड़के के हाथ में चाकू था। पर सोचिए अगर इनमें से वह लड़की किसीकी बहन होती तब भी क्या खड़े-खड़े तमाशा देखते? बचाने की कोशिश तक नहीं करते। इतने सारे लोग पीछे से जाकर लड़के को पकड़ लेते तो शायद लड़की की जान बच जाती। पर कोई आगे नहीं आया, किसीने हिम्मत नहीं की। यही बात साबित करती है की हम गूँगे बहरे होते जा रहे है, टोटली मतलबी।
माना कि कई बार ऐसा भी होता है की बचाने वाला या दखल अंदाज़ी करने वाला फंस जाता है। पुलिस का मामला हो तब पुलिस शक के दायरे में निर्दोष और मदद करने वालों को भी अंदर कर देती है। इस डर की वजह से कोई किसीकी मदद के लिए आगे नहीं आता। पर क्या ये जायज़ है? हमारी ही आँखों के सामने अघटित घटना बन जाती है और हम नपुंसक की तरह तमाशा देखकर आगे बढ़ जाते है, क्या इसे एक ज़िंदगी बर्बाद करने में हमारा योगदान नहीं माना जाएगा? आज कोई ओर है कल हमारे साथ या हमारे अपनों के साथ कुछ गलत हो सकता है, तब हमारी मदद के लिए भी कोई आगे नहीं आएगा तो हमें कैसा लगेगा। माना कि एकल-दुकल इंसान कुछ नहीं कर सकता पर जब पाँच ऊँगलियाँ जुड़ जाती है तब मुठ्ठी बन जाती है, जो ताकत का प्रतीक है। तो भीड़ का हिस्सा बनने से बेहतर है भीड़ खुद एक बनकर हादसे को रोकने के लिए आगे आए और असामाजिक तत्वों का हिम्मत से सामना करेंगे तो बहुत सारी घटनाएं घटने से बच जाएगी।
सोचिए अगर झांसी की रानी, महात्मा गाँधी, शिवाजी या सुभाष चन्द्र बोस और आज़ादी की लड़ाई में शहीद होने वालें सारे भीड़ का हिस्सा बनें रहते तो? तो क्या आज हम आज़ाद भारत की भूमि पर साँस ले रहे होते। या सरहद पर 45 डिग्री गर्मियों में या माइनस ज़ीरो डिग्री तापमान में भी हमारी रक्षा के लिए 24 घंटे तैनात सिपाही मुझे क्या कौनसा अकेले मेरे घर का मामला है सोचकर घर में बैठे रहते तो? कोई सीने पर गोली खाने के शौक़ीन नहीं होते देशप्रेम और भाईचारे की भावना उनको निडर बनाती है।
डर के आगे जीत है, एक दो लोग हिम्मत करेंगे तो साथ देने वालों की कमी नहीं बस आगाज़ करने की देर होती है। डर को पीछे छोड़ कर, हिम्मत दिखाकर, एक बनकर जब असामाजिक तत्वों को सबक सिखाएंगे तभी समाज में हादसे आहिस्ता-आहिस्ता कम होते जाएंगे। इसलिए मौन और तमाशबीन न बनकर एक दूसरे की मदद के लिए आगे आएंगे तो सबके हृदय में अपनेपन और भाईचारे की भावना भी बढ़ेगी, और सुदृढ़ समाज का निर्माण होगा।
भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर