सभ्यता का कलंक
सभ्यता का कलंक
जितेन्द्र 'कबीर' |
बंदरों के झुंड का सरदार
अपनी शारीरिक शक्ति के बल पर
संसर्ग करता है
अपने झुंड की सभी मादाओं के साथ,
सिर्फ अपनी यौन-क्षुधा की ही
तृप्ति के लिए नहीं
बल्कि झुंड पर अपना बर्चस्व
स्थापित करने के लिए भी,
युद्ध में हारे हुए राजा की प्रजा को
गुलाम अथवा यौन-गुलाम बना कर रखने का
भी इतिहास रहा है दुनिया में,
हथियारबंद पुरुष,
एक सैनिक के रूप में हो,
आतंकी के रूप में हो,
दंगाई के रूप में हो
या फिर किसी भी ऐसे रूप अथवा परिस्थिति में हो
जिसमें उसे सजा का डर न हो,
समाज का डर न हो
स्वयं को अथवा उसके परिवार को नुक्सान
का डर न हो
तो चुन लेता है बहुत बार
सामने पड़ गई स्त्री की मजबूरी का फायदा उठा
उसके ऊपर बलात्कार करना,
सिर्फ यौन-क्षुधा की तृप्ति के लिए नहीं
बल्कि नारी जाति पर अपना
बर्चस्व स्थापित करने के लिए भी,
अपनी सांस्कृतिक मूल्यों एवं श्रेष्ठता के
तमाम दावों के बावजूद
स्त्री जाति पर लगातार बढ़ते यौन हमले
हमारे समाज में मौजूद पशु-प्रवृति के
जीते-जागते सबूत हैं,
धन-बल-पद-चालाकी-झूठ के बलबूते
किसी स्त्री से संबंध बना लेने को
अपनी जीत समझना
हमारी सभ्यता के माथे पर सबसे बड़ा
कलंक है।
जितेन्द्र 'कबीर'
यह कविता सर्वथा मौलिक अप्रकाशित एवं स्वरचित है।
साहित्यिक नाम - जितेन्द्र 'कबीर'
संप्रति- अध्यापक
पता - जितेन्द्र कुमार गांव नगोड़ी डाक घर साच तहसील व जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश
संपर्क सूत्र - 7018558314