समाज सेवा में भावना का स्थान नहीं , पर इंसान हैं हम भी

समाज सेवा में भावना का स्थान नहीं , पर इंसान हैं हम भी

आज मेरी कलम कि चितकार खामोश हो गई दर्द में डूब कर इस कदर कि समझ नहीं आ रहा लिखूं तो क्या लिखूं , किस कदर लिखूं , क्यों कि आज खुद को ही मैं नाकाम पा रही , खुद को ही दोष दे रही की मैं कुछ ना कर पाई , मेरी सोच और मेरी वेदना के आंसू मुझे कोस रहे हैं । रोके ना रूक रहे आंसू मेरे और दर्द मुझे झकझोर रहा है । एक पल दिल को समझाती कि जितना हो सका तूने किया , किसी की जिंदगी और मौत के समय का चक्र तो उस भग्वान के हाथ में ही है । पर सिर्फ कुछ पल समझा पाती खुद को यहां -वहां मन भी बहलाती पर फिर घुमा-फिरा के दर्द मुझे अपने लपेटे में ही ले लेता । ब्लड कार्डिनेटर बन के बहुत कड़वे और कुछ मीठे अनुभव भी हुए । जिसके अंतर्गत हम सिर्फ कोशिश करते किसी मरीज को ब्लड दिलवाने की , कोशिश कामयाब भी हो जाती बहुत से केस में और अंतर्आत्मा तृप्त होती किसी की दुआएं पाकर या ये कह लें मरीज़ के परिचितों की दुआएं पाकर । एसे ही एक केस आया लखनऊ का जिसने मुझे दर्द से भर दिया जिसमें आंसू मेरे थम नहीं पाए केस के अंतर्गत , जिसमें बच्चे की उम्र मात्र तेरह साल थी । बच्चा ए-प्लास्टिक एनिमिया से जूंझ रहा था अठारह अगस्त को जब केस आया तब बच्चे की मां से मेरी बात हुई , जिसका रो-रो कर बुरा हाल था , वो कोई भी जानकारी देने में अस्मर्थ थी सिर्फ रोए जा रही थी और बस बार-बार गुहार लगा रही थी मैडम मेरे बचवा को बचा लो गांव की भाषा में , जब बच्चे के पिता के बारे में पूछा बोली वो घर पर हैं बहुत बीमार है , मां अकेले पड़ गई थी तब लखनऊ के पुलिस अधिकारी सब इंस्पेक्टर आदरणीय जितेंद्र सिंह से संपर्क किया , और इस केस में इतना दुखी हो गई की बस उनको जैसे हुकुम देते हुए कह दिया आप जाओ अभी बच्चे की मां कि मदद् करो , पुलिस अधिकारी जितेंद्र सिंह मेरी संवेदनाओं कि कद्र कर नाराज़ होने के बजाए पूरा सहयोग किये । निरंतर मां से संपर्क कर जितेन्द्र सर सहयोग करते रहे मां का , आर्थिक रूप से कमजोर मां को आर्थिक सहायता भी देनी चाही सर ने परंतु मां सिर्फ़ यही कही बच्चे के लिए ब्लड का बंदोबस्त कर दो , मेरे बच्चे को बचा लो । पूर्णतः मां के प्रयाओं को भी नमन जो अकेले यम से लड़ रही थी बच्चे की जान बख्शने के लिए , पर कहां उसके लिखे काल चक्र पर किसी का बस चलता है मां के साथ-साथ जितेन्द्र सर और दूसरे अधिकारी वर्ग और मैं भी हार गयी । सच हृदय दर्द से इतना भर गया कि रोए बिना न रह पाई । जितेन्द्र जी के द्वारा जब ये सूचना प्राप्त हुई तो जितेन्द्र जी का कंठ भी रूंआसा सा हो गया था , वो भी अपने आसूंओं जज़्बातों को दबा मुझे ही सांत्वना बंधाते रहे , सोचती हूं की मैं असहाय हूं मैं कुछ नहीं कर सकती और सोचा मैं ये सेवा का कार्य अब नहीं करूंगी । पर दिल ना माना और सोचा जैसे डाक्टर मरीज में मोह नहीं रखते अपना कर्म और प्रयास करते हर संभव सुविधा दिलवाते , ठीक उसी तरह हमें भी खुद को कड़ा दिल बनाना है , वरना एक के कारण सेवा का कार्य छोड़ दिया तो दूसरे लोगों कि मदद् ना कर मैं ज्यादा पाप की भागीदारी बनूंगी । यही सोच फिर सेवा के कार्य में जुट गई , पर दिल रूक-रूक कर उस मां कि करूणा भरी गुहार को जैसे मेरे कानों में गूंजा रहा था । दिल को कैसे समझाऊं नहीं समझ आ रहा पर समझाते हुए आगे बढ़ना भी जरूरी है । सच अनजानों संग , अनदेखे लोगों संग ना जाने क्यों दिल इतना जुड़ जाना कि बस दिल माने नहीं मानता । आज भी हमारे देश के जितेंद्र सिंह जैसे पुलिस अधिकारी, वीर सपूत हैं जो अपने घर के दायित्व के साथ-साथ , अपने देश के प्रति अपने पद् के प्रति दायित्व निर्वाह के साथ-साथ मानवता सेवा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं । नमन देश के समस्त वीरों को , समाज सेवियों को जो किसी अनजाने के दर्द को अपना समझ पूरी तरह से निष्ठा से सेवा के लिए तत्पर रहते हैं ।

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veena-advani
वीना आडवाणी तन्वी
नागपुर, महाराष्ट्र
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