कविता - मोहन

कविता - मोहन

मोहन! मुरली से प्रीत तुम्हारी
अगाध अनन्त हुई कैसे
प्रीत में पागल मीराबाई
मन से सन्त हुई कैसे

राधा ने दुनियादारी त्यागी
और तुम्ही को साध लिया
निज प्रेम के अटूट सूत्र से
प्रेम से तुमको बांध लिया
तुमको प्रीत गोपियों से
बताओ भगवंत हुई कैसे
मोहन! मुरली से प्रीत तुम्हारी
अगाध अनन्त हुई कैसे

राधा को भी एक दिन
चुपके से तुम छोड़ गए
जिसके बिन तुम आधे थे
उससे रिश्ता तुम तोड़ गए
ग़र तुमने गलत किया ही नहीं
फिर ये बात ज्वलंत हुई कैसे
मोहन! मुरली से प्रीत तुम्हारी
अगाध अनन्त हुई कैसे

जरा बताओ क्या एक भी दिन
बिन मुरली के तुम रह पाए
जा रहा हूँ फिर से मिलूँगा मैं
क्या राधा से तुम कह पाए
तुम्हारे हृदय की भावनाएं
इतनी बलवंत हुईं कैसे
मोहन! मुरली से प्रीत तुम्हारी
अगाध अनन्त हुई कैसे

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-सिद्धार्थ गोरखपुरी
-सिद्धार्थ गोरखपुरी


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