श्रीक़ृष्ण जन्माष्टमी विशेष -
श्रीकृष्ण है त्रिलोकी के अधीश्वर
कृष्ण सभी भुवनों के स्वामी है, सम्पूर्ण (अखण्ड) हैं, वे धर्म की परम गहराइयों ओर ऊंचाइयों पर होकर भी गंभीर नहीं दिखाई देते है वे जीवन से उदास, हारे हुये, भागे हुए होने के बाद भी नाचते हुए। बंशी बजाते हुए, हसते ओर गीत गाते हुए खड़े है। असल में समूचा भारत ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया कृष्ण को मानती है किन्तु कृष्ण को समझते नहीं, आवश्यकता है उन्हे समझने की। कृष्ण शांतिवादी नहीं हैं,पर मनुष्यता पर आए संकट को टालने के लिए शांतिदूत बनकर शांति का प्रस्ताव लेकर चल पड़ते है। कृष्ण युद्धवादी नहीं हैं पर यदुध से भागे भी नहीं ओर आवश्यक हुआ तो युद्ध किया। असल में वाद का मतलब ही होता है कि दो में से हम एक को चुनते हैं। कृष्ण अ-वादी हैं। कृष्ण कहते हैं, शांति से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। युद्ध से शुभ फलित होता हो तो स्वागत है। कृष्ण कहते हैं जिससे मंगल-यात्रा गतिमान होती हो, जिससे धर्म विकसित होता हो, जिससे जीवन में आनंद की संभावना बढ़ती हो, तो स्वागत है।
कृष्ण जैसा या उनसे बढ़कर अन्य कोई नहीं है, इसलिए उन्हे त्रिलोकी का अधीश्वर स्वीकार किया गया है। कृष्ण अपनी राज्यलक्ष्मीके द्वारा पूर्णकाम हैं, चिरलोकपालगण भी जिनके श्रीचरणकमलों में करोड़ों-करोड़ों मस्तकों द्वारा प्रणाम करते हैं, ऐसे परिपूर्णकाम हैं- भगवान् श्रीकृष्ण। श्रीगीतामें भी इसकी पुष्टि की गयी है- विष्टभ्याहमिदं कृत्स्नमेकांशेन स्थितो जगत्' अर्थात् मैं, कृष्ण, अपने एक अंश से इस समस्त जगत्को धारणकर अवस्थित है। तापनीमें भी ऐसा ही कहा गया है-एकोवशी सर्वगः कृष्ण ईड्यः' अर्थात् श्रीकृष्ण एक हैं, वे सबको वशीभूत रखनेवाले, सर्वज्ञ तथा सबके पूज्य हैं। ऐसे जो ईश्वर हैं, वे हैं 'परमः' - परा अर्थात् सर्वोत्कृष्टा 'मां' लक्ष्मी-रूपा शक्तिसमूह हैं जिनके, वे हैं परमेश्वर अर्थात् सर्वश्रेष्ठ लक्ष्मी अर्थात् श्रीराधाके साथ जो सर्वदा अवस्थित हैं, वे हैं परमेश्वर श्रीकृष्ण। श्रीमद्भागवतमें कहा गया है-रेमे रमाभिर्निजकामसंप्लुतः' अर्थात् भगवान् कृष्णने अपनी लक्ष्मियों- श्रीमती राधिकादि गोपियोंके साथ रमण किया। और भी 'नायं श्रियोऽङ्ग उ नितान्त रतेः प्रसादः' अर्थात् गोपियोंको श्रीकृष्णके साथ रास-विलास में जो सौभाग्य प्राप्त हुआ, वह रुक्मिणी-सत्यभामादि द्वारका की राजमहिषियों, वैकुण्ठ की लक्ष्मियों तथा देवलोक की लक्ष्मियों को प्राप्त नहीं हुआ; स्वर्गकी देवियोंकी तो बात ही क्या? तापनीमें- 'कृष्णो वै परमं दैवतम् अर्थात् श्रीकृष्ण ही एकमात्र परम देवता हैं।
अनन्तर श्रीमद्भागवतमें जिन्हें परिभाषा वाक्य के रूपमें निरूपित किया गया है-"एते चांशकलाः पुंसः कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्" अर्थात् जितने भी भगवान के अवतार हुए हैं, उनमें से कोई परम पुरुष के अंश तथा कोई अंश के अंश-कला हैं, परन्तु श्रीकृष्ण ही स्वयं-भगवान् हैं; उन स्वयं-भगवान् श्रीकृष्ण को ही प्रस्तुत श्लोकमें "ईश्वरः परमः परमेश्वर या सर्वेश्वरेश्वर कहा गया है। क्योंकि दूसरे दूसरे अवतार भी ईश्वर हैं, अतएव उन सबके अवतारी श्रीकृष्ण को ही एकमात्र परमेश्वर कहा गया है। शास्त्र में ऐसा कहा गया है-जो ईश्वर समूह में परमेश्वर, देवताओं में परम देवता, समस्त प्रजापतियों में परम-पति हैं तथा जो समस्त भुवनोंके स्वामी हैं, ऐसे महान् देव श्रीकृष्णको मैं जाननेका प्रयास करता है। 'कृष्ण' शब्द-विशेष्य पद है और अवशिष्ट सभी शब्द विशेषण पद हैं। श्रीशुकदेव आदि प्रसिद्ध महाजनोंने 'कृष्णावतार महोत्सव' आदि पदोंके द्वारा श्रीकृष्णको ही सभी अवतारों के अवतारी के रूपमें प्रतिष्ठित किया है।
श्रीकृष्णाविर्भाव के समय श्रीगर्गाचार्य ने नन्दगोकुल में पहुंचकर जब उनका नामकरण किया था, तब उन्होंने कहा था- हे नन्दजी। आपके इस बालक ने पूर्व युगों में भी अवतार लिया है। सत्ययुग में शुक्लमूर्ति, त्रेतायुग में रक्तमूर्ति, कलियुगमें पीतमूर्ति और इस द्वापर में कृष्णवर्ण ग्रहणकर अवतरित हुआ है। इसलिए इस बालकका नाम कृष्ण है। और भी 'कृष्णतां गतः' अर्थात् 'कृष्णस्वरूपतां गतः' इसके द्वारा भी यही प्रतीत होता है कि जितने भी अवतार हैं, वे सभी कृष्ण-स्वरूपमें प्रवेशकर कृष्णमयता को प्राप्त हुए हैं। जैसे श्रीगर्गाचार्य ने कहा है- आसन् वर्णा स्त्रयो ह्यस्य गृह्णतोऽनुयुगं तनुः । शुक्लो रक्तस्तथा पीत इदानीं कृष्णतां गतः ॥ बहूनि सन्ति नामानि रूपाणि च सुतस्य ते। गुणकर्मानुरूपाणि तान्यहं वेद नो जनाः ॥ अर्थात् हे नन्द महाराज! आपके पुत्र के बहुतसे गुण तथा कर्म हैं। उनके अनुरूप बहुत से नाम समय-समयपर प्रकाशित होते रहेंगे। यह केवल मैं ही जानता हूँ, दूसरे नहीं। इस समय ये कृष्णरूपमें प्रकट हुए हैं, ऐसे ही ये प्रत्येक युगमें बहुतसे अवतारोंको प्रकट करते हैं। प्रारम्भमें जो शुक्ल आदि अवतार प्रकट हुए हैं, वे सभी 'इदानीं कृष्णतां गतः- कृष्णमें अन्तर्भूत होकर आये हैं अर्थात् समस्त अवतारोंका समावेश कृष्णमें हुआ है। इसलिए यहाँ कृष्णका ही कर्तृत्व है अर्थात् उन्हींकी सर्वोत्कर्षता प्रकाशित है। अतः वे सभी कृष्णके ही रूप हैं। 'बहूनि सन्तिं नामानि रूपाणि' से जितने नाम और रूप हैं, वे सभी कृष्णके ही नाम-रूप हैं।
परंब्रह्म' अर्थात् अखण्ड सत्ता और अखण्ड आनन्द दोनों मिलकर परं ब्रह्म-जो सब प्रकारसे सर्वश्रेष्ठ हैं, समस्त बृहद् वस्तुओंमें जो सर्व बृहत्तम हैं, उन्हींको कृष्ण कहा जाता है। यहाँ किन्तु 'कृष्' धातुका आकर्षण अर्थ और 'ण' शब्दका आनन्द अर्थ होनेसे उसके साथ समानाधिकरण रूपमें नहीं, परन्तु हेतु हेतुमत् भाव से अभेदरूप में वर्णित हुआ है। 'आयुर्वृतम्'- अर्थात् घी ही आयु है- इस न्यायके अनुसार श्रीकृष्णरूप सत्ता में आकर्षणकी प्रचुरता है। जो बृहद् हैं तथा दूसरोंको भी बड़ा बनाते हैं, उनको परम ब्रह्म कहा जाता है। श्रुतिमें भी ऐसा ही कहा गया है- "अथ कस्मादुच्यते ब्रह्म बृहति बृहयति च" अर्थात् ब्रह्म किसे कहते हैं? जो स्वयं बृहत् हैं तथा दूसरोंको भी बृहत् बनाते हैं, वे ब्रह्म हैं। श्रुतिमें- 'सदेव सौम्य इदमग्रमासीत्' अर्थात् हे सौम्य ! सृष्टिसे पहले एकमात्र सत्स्वरूप भगवान् ही थे। सत्स्वरूप भगवानमें पूर्ण आनन्द और पूर्ण आकर्षण दोनों हैं। सर्व आकर्षण-शक्तिविशिष्ट आनन्दात्मा 'श्रीकृष्ण' हैं वे ही 'सर्व' पद आत्माओं अर्थात् जीवात्माओंके लिए है, क्योंकि श्रीकृष्ण उनको आकर्षणकर उन्हें आनन्दित करते हैं। उसका कारण है- 'भाव' अर्थात् प्रेम। उस प्रेमानन्दमें जो सदा डूबे हुए हैं, दूसरोंको भी प्रेमानन्दमें डुबोते हैं।
एक (अकेला) था। ब्रह्माजीने भी कहा है- 'तदिदं ब्रह्माद्वयं शिष्यते' अर्थात् अंतमें एक अद्वयब्रह्म ही अवशेष रहता है। श्रीगीतामें भी कहा गया है- ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहम् - उस ब्रह्मकी भी में प्रतिष्ठा हूँ। और भी गीतामें- यस्मात् क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तमः। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः ॥' अर्थात् में इस क्षर तत्त्वसे अतीत और अक्षर तत्त्वसे भी उत्तम है। इसीलिए जगत्में और वेदोंमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है। भगवान् सदा सर्वदा पुरुष-तत्त्व हैं, वे स्त्री या क्लीव नहीं हैं। उनके पुरुष-तत्त्वका विचार जाननेसे उनमें स्त्री या क्लीवत्वका भ्रम नहीं रहता है। जितने भी विष्णुतत्त्व हैं, उन सबमें जो उत्तम हैं-उत्कृष्टतम या परम हैं, वे ही पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण हैं।
श्रीकृष्ण निखिल विश्व के अन्तर्यामि आदि पुरुष है। हे भगवान्! हे श्रीकृष्ण! आप ही मूल नारायण हैं। नार-शब्दका अर्थ जीवसमूह है। अतः नार अयन-निखिल जीवोंके आश्रय, भू-अखिल लोकोंके आश्रय और साक्षी अर्थात् त्रिकालज्ञ, नारायण जिनके अंग अर्थात् विलासमूर्ति हैं, ऐसे आप अपरिच्छिन्न स्वरूप हैं। कृष्ण ब्रह्म आनन्दस्वरूप है। यदि वे आनन्दस्वरूप नहीं होते तो, दूसरा कौन प्राण धारण कर सकता था? उस आनन्दसे ही सारी प्रजाएँ उत्पन्न हुई हैं। उनका कोई प्राकृत कार्य नहीं है, और न उनकी कोई प्राकृत इन्द्रियी हैं। न कोई दूसरा उनके समान है और न कोई उनसे बढ़कर ही है। उनकी नित्य और स्वाभाविकी एक पराशक्ति है। वह पराशक्ति विविध प्रकारसे प्रकाशित होती है। आपकी ही अचिन्त्यशक्तिके प्रभावसे इस विश्वकी उत्पत्ति और संहार होता है; फिर भी वह (विश्व) सत्यकी भीति प्रतीत होता है। तापनी और हयशीर्ष पञ्चरात्रमें भी श्रीकृष्णके सच्चिदानन्दधन-विग्रहका प्रतिपादन किया गया है- 'सच्चिदानन्दरूपाय कृष्णयाक्लिष्टकारिणे। नमो वेदान्त वेद्याय गुरवे बुद्धिसाक्षिणे- अर्थात् जो सच्चिदानन्दघन-विग्रह हैं, जो वेदान्त शास्त्रके प्रतिपाद्य हैं, जो अनायास ही निरपेक्षरूपसे अखिल विश्वकी सृष्टि, स्थिति और प्रलयके सम्पादक हैं, जो भक्तोंकी अविद्या आदि पंचक्लेशोंका हरण करते हैं, जो हमारे गुरु हैं अर्थात् गुरुरूप से इन सबकी बुद्धिके प्रेरक तथा साक्षी हैं ओर सच्चिदानन्दस्वरूप हैं।
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आत्माराम यादव पीव वरिष्ठ पत्रकार
श्री जगन्नाथ धाम काली मंदिर के पीछे ग्वालटोली
नर्मदापुरम मध्यप्रदेश
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