ताउम्र छटपटाती नारी के भीतर का ज्वालामुखी एक दिन चिल्ला -चिल्ला कर फूट पड़ा।

ज्वालामुखी

ताउम्र छटपटाती नारी के भीतर का ज्वालामुखी एक दिन चिल्ला -चिल्ला कर फूट पड़ा।
ताउम्र छटपटाती नारी के भीतर का ज्वालामुखी एक दिन चिल्ला -चिल्ला कर फूट पड़ा।
आख़िर कब तक तुम्हारी सोच और बंदिशो के दायरे में रहूँ? अब तो आज़ाद कर दो, मेरे भी मुँह में जीभ है, बोलने दो ना मुझे, कब बोलना है मुझे यही बता दो
कुछ तो बोलने दो.! 
माँ मुझे बोलना है, क्यूँ चुप कराती हो? 
बचपन मैं कितने सवाल होते थे मन में, कुछ भी बोलने पर कभी माँ चुप करा देती, कभी पापा, तो कभी भैया अभी तुम छोटी हो इतना मत बोलो.! थोड़ी बड़ी क्या हुई वही दशा रही, ऐल-फेल मत बोलो अब तुम बड़ी हो रही हो "मैं सहम कर चुप"..!
आहा अब तो मैं जवान हूँ थोड़ा तो बोल सकती हूँ, प्रिया पराये घर जाना है पता है ना, ससुराल में नाक कटवाओगी क्या? लड़कीयों का इतना बोलना अच्छी बात नहीं, कम बोला करो या चुप रहा करो जब देखो बड़बड़, "मैं चुप"। 
ससुराल में बड़ी बहू थी कुछ भी बोलने पर सासु माँ का ताना उबल पड़ता, बहू अपनी हद में रहो ये तुम्हारे पापा का घर नही, अभी मैं बैठी हूँ। मानों मेरे बोलने से उनका सिंहासन छीन जाएगा, "और मैं चुप".! मुझे बोलना है पति को दो बातें सुनानी है प्यार जताना है, रूठना है, मनाना है, 
पर ..! डांट..... मेरी बात में कोई टांग अडाए मुझे बिलकुल नहीं पसंद, तुम चुप रहो तो ही बेहतर होगा। मैं रूआँसी हो गई कहाँ जाकर हक माँगूँ सिर्फ़ बोलने का.."और मैं चुप"
नौकरी करने लगी, पर सच्चाई की पुतली जो ठहरी। सच बोलने पर नोटिस मिली अपना ज्ञान अपने पास रखो अगर शांति से नौकरी करनी है तो मुँह पर ताला लगाकर आराम से अपना काम करो। ओह.. यहाँ भी आज़ादी नही, "मैं चुप" 
बच्चे बड़े हुए हर टाॅपिक पर बातें करनी चाही पर, मोम आपको कुछ पता नहीं प्लीज़ चुप रहिए, ये आपका ज़माना नही। मेरी तृष्णा मर गई, मौन मुखर होने को तड़प उठा पर हक नहीं मिला, "और मैं चुप"
अब तो बुढ़ी हो गई बोलने दो ना, ये बुढ़ापे की सनक नहीं आख़री आरज़ू समझो। दादी माँ आपको कमरा दिया है ना क्यूँ बार- बार बात करने के बहाने डिस्टर्ब क्यूँ करते हो, आपको आराम की जरूरत है जाईये आराम कीजिए, ज्यादा बोलना आपकी सेहत के लिए ठीक नहीं.! 
और "मैं चुप" हलक में शब्दों के मजमे अटके है, सबसे बहुत कुछ कहना है। मौन की कब्र में दबे अल्फ़ाज़ों को दफ़नाते थक चुकी हूँ कुछ तो बोलने दो।
पर ये किसकी आवाज़ है?
अब चुप भी रहो अनंत की डगर पर अकेले ही जाना है किससे बात करोगी चलो मैं तुम्हें लेने आई हूँ। ओह तो मेरी साँसें खतम हो गई, मौत खड़ी है दरवाजे पर। मैं आज भी कुछ कहना चाहती हूँ, सुनो कोई तो सुनो उस अलमारी के नीचे जो.....
अरे दादी माँ बोलो-बोलो क्या अलमारी के नीचे? क्या माँ बोलो ना......क्या है अलमारी के नीचे, सुनो प्रिया, प्रिया बोलो ना क्या है अलमारी के नीचे? आज जब मेरे हलक से शब्द नहीं निकल रहे तब सबको मुझसे बुलवाना है, क्यूँकि सबको अलमारी में रस था। पर अब मुझे कुछ भी नहीं बोलना, मैं चुप-चाप हंमेशा के लिए चुप हो गई, अलमारी का रहस्य अपने मौन में दफ़ना कर एक भीतरी सनक लिए..! मौत ने भी चुप करा दिया।
पर आज भी ज़िंदा तो हूँ कुछ एक अबलाओं के ज़हन में, दमन को सहती पिता, भाई और सरताजो के हाथ में कैद कठपुतली सी, आज़ादी को तरसती क्यूँकी मैं अक्सर चुप रहती हूँ।

About author

bhawna thaker

(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु

Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url