शादी के बाद क्यूँ बदल जाती है बेटियों की पहचान

"शादी के बाद क्यूँ बदल जाती है बेटियों की पहचान"

"किसने बनाई यह रस्में, किसने बनाए रिवाज़? बेटियों के वजूद को मिटाने की साज़िश थी, या थी महिलाओं को जूती के नीचे दबाए रखने की ख़्वाहिश"
सारी परंपराएं, सारे रिवाज़ और सारी बंदीशें सिर्फ़ स्त्रियों के लिए ही क्यूँ? सदियों से थोपी गई रवायत को महिलाएं भी ढ़ोती आ रही है। क्यूँ कभी किसीने एक भी परंपरा तोड़ने की कोशिश नहीं की? क्यूँ पुरुषों का आधिपत्य स्वीकार करते आज भी कुछ महिलाएँ खुद को मर्दों से एक पायदान नीचे ही पाती है। बात यहाँ मर्दों का स्थान जताने की नहीं, समान हक की है। सिर्फ़ कागज़ो पर समानता और हक की बातें रह गई है, पितृसत्तात्मक वाली सोच से कब निजात मिलेगा।
पति से तलाक हो जाने के बाद भी, या पति के छोड़ देने के बाद भी बच्चों के नाम के पीछे क्यूँ पिता का ही नाम लगाया जाता है? जब कि कई बार देखा जाता है कि, माँ ही दो तीन बच्चों को अकेले हाथों पालती है, फिर भी बच्चों के हर दस्तावेज में पिता का नाम अनिवार्य होता है।
आख़िर क्यूँ शादी के बाद लड़कियों का पूरा अस्तित्व नष्ट हो जाता है? घर से लेकर सरनेम और गोत्र तक बदल जाता है। कई-कई ससुराल वाले तो नाम पसंद न आने पर बहूओं के नाम तक बदल देते है, ज्योत्सना की जगह जूही बना देते है। पिता के नाम की आदी गुड़िया के नाम के पीछे शादी के बाद सभी सरकारी दस्तावेजों में पिता के स्थान पर पति का नाम दर्ज हो जाता है, क्यूँ पति का नाम पत्नी के आधार कार्ड में नहीं जुड़ता। क्यूँ किसीने इस बदलाव के बारे में नहीं सोचा?
लड़कियों की भावनाएं सच में आहत होती है, ये इतना आसान भी नहीं होता नाम और सरनेम बदलने को लेकर बच्ची के एहसास जुड़े होते है। बहुत ही अजीब लगता है जब कोई दूसरे नाम से बुलाता है। शुरू-शुरू में ध्यान भी नहीं रहता की किसे बुला रहे है।
बेशक शादी परिवार के सूत्र में पिरोती है, एक मिट्टी में पली बड़ी एक लड़की के वजूद को उखाड़ कर समूची अन्जानी मिट्टी में गाड़ देते है। नये रिश्तों की नींव रखते ही जन्म से जुड़े सारे रिश्ते पीछे छूट जाते है। सबसे पहले पत्नी बनती है, बहू कहलाती है, एक खानदान की लाज बन जाती है जबकि पति की पहचान पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ता।
जब बेटी के नाम के पीछे से पिता का नाम हटकर पति का लग जाता है तब बाप और बेटी दोनों के मन में दर्द की कश्मकश होती है। शादी के बाद लड़कियों के लिए सरनेम बदलना क्यूँ अनिवार्य हो जाता है? इसकी क्या ज़रूरत है या फिर ये केवल परंपरा के नाम पर होता है? या फिर इसे पुरुषों के वर्चस्व को स्थापित करने का प्रमाण मान लिया जाए। क्यूँ लड़कियां ताज़िंदगी जन्म से मिले नाम और सरनेम के साथ नहीं जी सकती। क्या औरतें नाम बदलकर पति के प्रति अपना समर्पण जाहिर करती है? या परंपरा के नाम पर अपना अस्तित्व कुर्बान करती है? ये समर्पण पूरवार करता है की पूरा समाज इस बात को मानता है की महिलाएं पुरुषों से कमतर है। अब एक नया फैशन चला है शादी के बाद लड़कियां दोनों सरनेम लगाती है पहले पिता की बाद में पति की। चलो इस बदलाव को मान्य रखते है की कम से कम आपने जन्म से मिली पहचान को बचाने में कामयाब रही है।
शादी के बाद एक महिला अपना सरनेम बदलना चाहती है या नहीं ये उसकी खुद की मर्जी होनी चाहिए है, इसमें उस पर कोई दबाव नहीं डाला जा सकता। ये उनका कानूनी अधिकार भी है, लेकिन फिर भी महिलाएं चाहकर भी इसका खुलकर विरोध नहीं कर पा रही है, तो इसे उसकी कमज़ोरी ही मान लेनी चाहिए, जबकि महिलाएं मर्दों के मुकाबले कहीं पर कमतर नहीं। आज हर क्षेत्र में मर्दों के कँधों से कँधा मिलाकर अपना लोहा मनवा रही है। फिर भी अपने नाम के पीछे पति का नाम और सरनेम ही स्त्री की पहचान कहलाती है। शायद इस परंपरा को तोड़ने में समाज को ओर सदियाँ लगेगी।

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Bhawna thaker

(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु
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