कविता -शहर चलाता है
रिक्शा, ऑटोरिक्शा, इलेट्रिक रिक्शा चलाने वाले भाईयों को समर्पित रचना
वो बड़ी मुश्किल से खुद का घर चलाता है
अधूरी नींद अधूरा सपना
दिन दोपहरी में भी तपना
रोजी के चक्कर में प्रतिदिन
सवारी रूपी ईश्वर को तकना
क्या खूब चारो ओर नजर चलाता है
जो बिना थके सारा शहर चलाता है
वो बड़ी मुश्किल से खुद का घर चलाता है
जिसने साथ निभाया ज्यादा
मंजिल तक पहुंचाया ज्यादा
पर समय को जेहन में रख न सके
लोगो को लगा किराया ज्यादा
वो तीपहिया भी काफ़ी थक कर चलाता है
जो बिना थके सारा शहर चलाता है
वो बड़ी मुश्किल से खुद का घर चलाता है
सड़कों पर आधी उम्र कटी
कितनों की तो ताउम्र कटी
कभी सही सलामत घर आए
कभी दुर्घटना बहुत बड़ी घटी
अपना घर वो कई बार मर कर चलाता है
जो बिना थके सारा शहर चलाता है
वो बड़ी मुश्किल से खुद का घर चलाता है
कविता -शहर चलाता है
जो बिना थके सारा शहर चलाता हैवो बड़ी मुश्किल से खुद का घर चलाता है
अधूरी नींद अधूरा सपना
दिन दोपहरी में भी तपना
रोजी के चक्कर में प्रतिदिन
सवारी रूपी ईश्वर को तकना
क्या खूब चारो ओर नजर चलाता है
जो बिना थके सारा शहर चलाता है
वो बड़ी मुश्किल से खुद का घर चलाता है
जिसने साथ निभाया ज्यादा
मंजिल तक पहुंचाया ज्यादा
पर समय को जेहन में रख न सके
लोगो को लगा किराया ज्यादा
वो तीपहिया भी काफ़ी थक कर चलाता है
जो बिना थके सारा शहर चलाता है
वो बड़ी मुश्किल से खुद का घर चलाता है
सड़कों पर आधी उम्र कटी
कितनों की तो ताउम्र कटी
कभी सही सलामत घर आए
कभी दुर्घटना बहुत बड़ी घटी
अपना घर वो कई बार मर कर चलाता है
जो बिना थके सारा शहर चलाता है
वो बड़ी मुश्किल से खुद का घर चलाता है