भान दक्षिणायन भए- विजय लक्ष्मी पाण्डेय

भान दक्षिणायन भए...!!!

भान दक्षिणायन भए- विजय लक्ष्मी पाण्डेय
भान दक्षिणायन भए,
शिशिर सरकारी।
पछुआ बयार मोहे ,
तीर सम लाग्यो है ।।

बिकल बौराई मैं,
थर-थर बदन काँप्यो।
ऐसे में पी की ,
हजूरी सतावे है।।

जुड़ी में जोड़े -जोड़े,
पपीहा न बोली बोले।
अँधेरी रैन, जिया,
चैन नहीं पायो है ।।

पाती पर पाती,
पठावन लागी मैं।
पूस की भयावह रैन,
डरावन लाग्यो है।।

कंटक सी रूखी सूखी,
अंखियों नें काजर धुली।
अब तो प्रिय जाड़,
सतावन लाग्यो है।।

तकरार सैन की,
परदेशी बैन की।
पीपर की पाती पर,
सन्देशा एक आयो है।।

रीत गए माघ रैन,
फागुन गुलाल बिन।
चैत्र सखा संग,
होरी पठायो है।।

"विजय" के निहोरे,
आयो ना चकोरे।
माहुर की गाँछ में,
प्रान ढुकायो है।।

विजय लक्ष्मी पाण्डेय
एम. ए., बी.एड.(हिन्दी)
स्वरचित मौलिक रचना
आजमगढ़ ,उत्तर प्रदेश

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