अपेक्षाओं का दायरा छोटा रखिए
"अपेक्षाओं का दायरा छोटा रखिए"
क्यूँ हम चाहते है कि सब हमारी सोच के मुताबिक ही हो? इनको ऐसा करना चाहिए, उनको वैसा करना चाहिए और ऐसा नहीं होने पर अकुलाहट क्यूँ?
नेकी कर दरिया में ड़ाल इस कथन को याद रखकर सिर्फ़ अपने कर्तव्यों का पालन करते रहेंगे, तो मन शांत और सकारात्मक रहेगा। अपेक्षाओं का दायरा हंमेशा छोटा रखिए, अपेक्षाएँ हटते ही दुनिया अपरिचित और अन्जान लगेगी और अन्जानों से कैसी अपेक्षा? जहाँ अपेक्षा ख़त्म हो जाती है सुकून की शुरुआत जीवन में वहीं से होती है।
बेशक हर इंसान के मन में अपेक्षाएँ रहती है, जब व्यक्ति की अपेक्षाएँ पूर्ण हो जाती है तब ज़ाहिर सी बात है खुशी मिलती है। लेकिन जब अपेक्षा के बदले उपेक्षा मिलती है तो इंसान अंदर से टूट जाता है। अपेक्षाएं मन का मोह है, चाहे व्यक्ति की अपेक्षाएं पूरी न हों, परन्तु वह अपेक्षा रखता जरूर है। माता-पिता बच्चों से, बच्चे माता-पिता से, पति, पत्नी से, पत्नी, पति से, गुरु, से, दोस्त को दोस्त से अपेक्षाएँ रहती ही है। रिश्ता कोई भी हो अपेक्षा से परे नहीं होता। सीधा गणित है अगर कोई इंसान हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरता है तो वह सही और अच्छा वरना बुरा है।
यदि किसीके लिए कुछ अच्छा करने के बाद मन में ये लालच उत्पन्न होती है कि हाँ मैंने तो इनके कितना कुछ किया, उसको भी मेरे लिये ये करना चाहिए, वो करना चाहिए वो गलत है। जब आपकी अच्छाईयों का प्रतिभाव नहीं मिलता तब मन खिन्न हो जाता है, सामने वाला पराया बन जाता है। उनके हर व्यवहार में कमियां नज़र आने लगती है। ये हमारी अपेक्षा की वजह से होता है। किसीके लिए कुछ करके भूल जाना बेहतर होता है।
हमारे कर्मों का हिसाब जहाँ होना चाहिए वहाँ अचूक होता है, और उसका फल भी मिलता है। आज हर रिश्ता स्वार्थ की क्षितिज पर खड़ा है। जब तक आप किसीको देते रहेंगे आप सर्वश्रेष्ठ है, जैसे ही किसी दिन ना बोल दी आप दुश्मन की श्रेणी में खड़े कर दिए जाओगे। इस परिस्थिति में किसीसे भी उम्मीद या अपेक्षा रखना रेत में से पानी निचोड़ने के बराबर है।
अपेक्षाएँ मौन एहसास चाहती है। जैसे पति की पत्नी से केयरिंग होने की अपेक्षा, तो अभिभावकों की बच्चों से यह अपेक्षा कि वे बुढ़ापे में उन की देखभाल करेंगे। जबकि बच्चे यह अपेक्षा करते हैं कि वे अपनी सोच और मन मर्ज़ी के अनुसार जिंदगी जिएंगे, जिस में माता-पिता की टोका-टोकी न हो। लेकिन व्यावहारिक जीवन में ऐसा नहीं होता कि सामने वाला आप की अपेक्षा के अनुरूप व्यवहार करे या आप की सोच के मुताबिक आपसे रिश्ता रखें।
कर्तव्य और फ़र्ज़ निभाने की पहली शर्त है नि:स्वार्थ परोपकार करते जाओ, अपने हिस्से की धूप से किसी ओर का आशियां रोशन करते जाओ आपके घर की दीवारें हंमेशा झिलमिलाएगी। नेकी के पेड़ पर मीठा फल ही उगेगा। अगर ज़िंदगी में सुकून चाहिए और रिश्तों को ताउम्र बरकरार रखना चाहते हो तो कर्तव्य परायण अपना कर अपेक्षाओं को निजात दे दो। किसीसे भी अधिक उम्मीद निराश करेगी, कर्मों पर श्रद्धा रखिए अपेक्षाओं से सदा ही अधिक मिलेगा।
नेकी कर दरिया में ड़ाल इस कथन को याद रखकर सिर्फ़ अपने कर्तव्यों का पालन करते रहेंगे, तो मन शांत और सकारात्मक रहेगा। अपेक्षाओं का दायरा हंमेशा छोटा रखिए, अपेक्षाएँ हटते ही दुनिया अपरिचित और अन्जान लगेगी और अन्जानों से कैसी अपेक्षा? जहाँ अपेक्षा ख़त्म हो जाती है सुकून की शुरुआत जीवन में वहीं से होती है।
बेशक हर इंसान के मन में अपेक्षाएँ रहती है, जब व्यक्ति की अपेक्षाएँ पूर्ण हो जाती है तब ज़ाहिर सी बात है खुशी मिलती है। लेकिन जब अपेक्षा के बदले उपेक्षा मिलती है तो इंसान अंदर से टूट जाता है। अपेक्षाएं मन का मोह है, चाहे व्यक्ति की अपेक्षाएं पूरी न हों, परन्तु वह अपेक्षा रखता जरूर है। माता-पिता बच्चों से, बच्चे माता-पिता से, पति, पत्नी से, पत्नी, पति से, गुरु, से, दोस्त को दोस्त से अपेक्षाएँ रहती ही है। रिश्ता कोई भी हो अपेक्षा से परे नहीं होता। सीधा गणित है अगर कोई इंसान हमारी अपेक्षाओं पर खरा उतरता है तो वह सही और अच्छा वरना बुरा है।
यदि किसीके लिए कुछ अच्छा करने के बाद मन में ये लालच उत्पन्न होती है कि हाँ मैंने तो इनके कितना कुछ किया, उसको भी मेरे लिये ये करना चाहिए, वो करना चाहिए वो गलत है। जब आपकी अच्छाईयों का प्रतिभाव नहीं मिलता तब मन खिन्न हो जाता है, सामने वाला पराया बन जाता है। उनके हर व्यवहार में कमियां नज़र आने लगती है। ये हमारी अपेक्षा की वजह से होता है। किसीके लिए कुछ करके भूल जाना बेहतर होता है।
हमारे कर्मों का हिसाब जहाँ होना चाहिए वहाँ अचूक होता है, और उसका फल भी मिलता है। आज हर रिश्ता स्वार्थ की क्षितिज पर खड़ा है। जब तक आप किसीको देते रहेंगे आप सर्वश्रेष्ठ है, जैसे ही किसी दिन ना बोल दी आप दुश्मन की श्रेणी में खड़े कर दिए जाओगे। इस परिस्थिति में किसीसे भी उम्मीद या अपेक्षा रखना रेत में से पानी निचोड़ने के बराबर है।
अपेक्षाएँ मौन एहसास चाहती है। जैसे पति की पत्नी से केयरिंग होने की अपेक्षा, तो अभिभावकों की बच्चों से यह अपेक्षा कि वे बुढ़ापे में उन की देखभाल करेंगे। जबकि बच्चे यह अपेक्षा करते हैं कि वे अपनी सोच और मन मर्ज़ी के अनुसार जिंदगी जिएंगे, जिस में माता-पिता की टोका-टोकी न हो। लेकिन व्यावहारिक जीवन में ऐसा नहीं होता कि सामने वाला आप की अपेक्षा के अनुरूप व्यवहार करे या आप की सोच के मुताबिक आपसे रिश्ता रखें।
कर्तव्य और फ़र्ज़ निभाने की पहली शर्त है नि:स्वार्थ परोपकार करते जाओ, अपने हिस्से की धूप से किसी ओर का आशियां रोशन करते जाओ आपके घर की दीवारें हंमेशा झिलमिलाएगी। नेकी के पेड़ पर मीठा फल ही उगेगा। अगर ज़िंदगी में सुकून चाहिए और रिश्तों को ताउम्र बरकरार रखना चाहते हो तो कर्तव्य परायण अपना कर अपेक्षाओं को निजात दे दो। किसीसे भी अधिक उम्मीद निराश करेगी, कर्मों पर श्रद्धा रखिए अपेक्षाओं से सदा ही अधिक मिलेगा।
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(भावना ठाकर, बेंगुलूरु)#भावु