kavita chhijta vimarsh by ajay kumar jha
छीजता विमर्श.
दुखद- शर्मनाक जीवन पथ पर
निरपेक्षता नामित शस्त्र से
वर्तमान के अतार्किक भय में
रिस रहा लहू
इतिहास के जख्मों से.
हो रहा हनन
मूलभूत अधिकारों का
पृथकता की शेखी में
धार्मिक तटस्थता की भंगिमा में
राज-धर्म के नाम पर
स्वयं धर्म को है छेड़ता
हो सत्ता में मगरूर
अतटस्थ-अंर्तलीन.
समानता के जुमले तले
रौंदा जाता अधिकार
प्रगतिशीलता के आवरण में
स्वतंत्रता हो रहा बेहाल.
दिए जाते हैं बहादुरी के पदक
मुर्दों की शीश काटनेवालों को
एक किवंदति है बन गई
चुनती है जनता सरकार
माहौल तो कह रहा है अब
जनता को चुनेगी सरकार .
क्यों न हो जब
चुनावी युधिष्ठिर
रोज बोते हैं झूठ
लालसा लिए हम देखने की
काले धन की सफेदी को
जिनके पैर कभी पड़ते नहीं जमीन पर
नित पराये धन बने
नेता नजर आते हैं
तटस्थता की भंगिमा में
काठ की तोपें गरजती हैं
युद्ध हैं जीते जा रहे
टीन के तलवार से. .
सच्च है
भैंसों की लड़ाई में
घास का पीसना लाजिमी है,
कहते हैं हमसे वो
पौपकार्न बनने से पूर्व मकई को
गर्म तवे से गुजरना पड़ता है.
----------------------------------------
@अजय कुमार झा.
सहरसा (बिहार).