aatmkatha by dr shailendra srivastava
आत्मकथा
इस स्नाफिसेस को मेरठ यूनिवर्सिटी में नियत तिथि पर समीक्षा कमेटी के सामने रखा जाता है जिसमें शोध करने वाले छात्र का साक्षात्कार लिया जाता है तब उसका स्नाफिसेस का पंजीकरण होता है ।शोध छात्र उसी के अनुसार शोध करता है ।स्नाफिसेस में बाद में शोधकर्ता स्वयं कोई परिवर्तन नहीं कर सकता था ।
मेरे शोध कार्य में मेरठ यूनीवर्सिटी में प्राचीन भारतीय इतिहास में कोई पीएचडी होल्डर नहीं था । मुझे एम.ए.में पढ़ाने वाले डा.आर.एन.शर्मा उसी साल कालेज छोड़ कर दिल्ली विश्व विद्यालय से सम्बद्ध श्याम लाल पोस्ट ग्रेजुएट कालेज ,शाहदरा में पढ़ा रहे थे ।
शर्मा जी से मैं दो तीन बार मिला किंतु वह निर्देशक बनने के लिए तैयार नहीं हुये थे ।हालांकि सलाह दिया करते थे ।
दरअसल नियमत: अपने विश्व विद्यालय में विषय के योग्य प्रोफेसर नहीं होने पर इंटरनल निर्देशक के साथ बाहर से किसी योग्य इक्सटर्नल निर्देशक का चयन किया जा सकता था ।
इसी वजह से पहले दिल्ली विवि के डा.आर.एन.शर्मा से संपर्क किया था।पर वह नहीं तैयार हुये तो मैंने अन्य योग्य निर्देशक की तलाश शुरू किया ।
टापिक चयन के लिए पहले मैंने मेरठ विवि में हुये शोध की निर्देशिका पुस्तिका देखी ।उसमें प्राचीन भारतीय इतिहास पर एक भी शोध प्र बंध दर्ज नहीं था ।
किसी ने राय दी कि मंडी हाऊस स्थित भारतीय इतिहास अनुसंधान परिषद ( आइसीएचआर) तथा इंडियन काउंसिल फार रिलेशन्स )आइसीसीआर में भी जाकर देख ले ।दोनों संस्थान इतिहास से सबंध रखते थे ।
दोनों संस्थान रविंद्र भवन से सटी हुई हैं । यहाँ कैंटीन भी है अत: दोपहर.का लंच भी वहीं हो जाया करेगा ।
आइ सीएचआर में प्रकाशित शोध गंथ्रो की सूची मिली थी ।सबसे पहले शोध ग्रंथों के टापिक की सूची बनाई ।इसीतरह आइसीसीआर में जाकर वहाँ रखे अप्रकाशित शोध की सूची मैंने तैयार की ।
कई दिन की मेहनत के बाद दो तीन टॉपिक का चयन किया ।उसी पर स्नाफिसेस तैयार कर गाइड को दिखाया लेकिन गाइड की राय में टापिक का चयन ठीक नहीं था ।
इसी टापिक की तलाश में एएसआई.की लाइब्रेरी ,इंडिया गेट आना जाना शुरू हुआ था ।वहाँ इतिहास की पुस्तकों का भंडार मिला ।
इस लाइब्रेरी के आने जाने में काफी हाऊस आना शुरू हुआ था ।लगभग रोज दोपहर या शाम को मैं दिल्ली काफी हाऊस में बैठने लगा था ।
उस समय काफी व आमलेट महज एक रुपये में मिल जाता था जो मेरा दिन का लंच होता था ।उस समय.कनाट्प्लेस व.इंडिया गेट एरिया में यूपी का भोजन कहीं नहीं मिलता था ।
कालेज का एक सहपाठी प्रेम सागर अवस्थी लाजपत नगर में रहता था जहाँ मैं उससे मिलने प्रायः जाया करता था ।उसके बड़े भाई आइएएस.थे ।उस समय क्नाट्प्लेस के वेस्टर्न कोर्ट में मैजिस्टेट पद पर थे । वह भी मुझे भाई मानते थे । वे घर पर मौजूद होते थे तो मेरे पहुचने पर इतिहास पर बातें जरूर करते थे ।
एक दिन उनके सामने रिसर्च करने के टापिक पर बात छेड़.दी । उन्होंने मुझे लिच्छवियों पर रिसर्च करने का सुझाव दिया ।उन्होंने बताया कि उनके एक मित्र इलाहाबाद विश्व विद्यालय में इस विषय पर रिसर्च कर रहे थे किंतु आइ.ए.एस.में चयन हो जाने पर उन्होंने रिसर्च बीच में ही छोड़ दिया था ।
उन्होंने मुझे उनके पास राय लेने के लिये भेजा था ।मैं उनके पास गया भी था पर थोड़ा बहुत सलाह देने के अलावा कोई खास बात नहीं बताई ।और न अधूरे शोध कार्य की सामग्री ही मुहैया करवाई ।
लिच्छवियों के बारे में विद्वानों को भी बहुत कम जानकारी थी ।इसलिये इसपर रिसर्च करना बहुत कठिन लगता होगा , इसीलिये इस पर पीएचडी अभी तक कोई भी नहीं कर पाया था ।इसकारण मुझे उम्मीद थी कि इसपर तैयार स्नोफसिस मेरठ विश्व विद्यालय में जरूर रजिस्टर्ड हो जायेगी ।
मैंने दो चार दिन मेहनत कर स्नाफसेस तैयार किया ।रिसर्च करने का उद्देश्य लिखा औऱ लिच्छवियों के राजनीतिक तथा समाजिक इतिहास पर चैप्टर बनाकर अपने इंटरनल गाइड डा.राधेश्याम मिश्र को दिखाया ।उन्होंने थोड़ा बहुत बदलकर मुझे नेशनल म्यूजियम में कीपर पद पर कार्यरत डा.चंद्र भान पाण्डेय के पास फाइनल कराने के लिए भेज दिया ।
. अगले दिन मैं सीधे इंडिया गेट जाकर नेशनल म्यूजियम में डा.पाण्डेय से मिला ।वह स्नाफसिस देख कर कहा ,' लिच्छवियों पर शोध करना बहुत श्रमसाध्य है ।हिम्मत करो तो मैं कराने के लिये तैयार हूँ ।मिश्रा जी भेजे हैं तो मना नहीं कर.सकता हूँ ।'
डा.सी.बी.पाण्डे एक जाना पहचाना नाम था । मोर्य कालीन आर्ट पर उनकी थीसिस थी ।"आंध्र-सातवाहन.का इतिहास," हिंदी में लिखने वाले पहले इतिहासकार हैं ।राष्ट्रीय संग्रहालय में कीपर (प्रकाशन ) पद पर थे ।महत्वपूर्ण पुस्तकों का सम्पादन व प्र काशन कराने की जिम्मेदारी उन्हीं पर होती थी । इसके लिये उनको राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिला था ।
उनके द्वारा भी वाक्यांश ठीक करने के बाद मैंने स्नाफिसेस की टाइप की तीन प्रतियां मेरठ विवि में जमा कर दिया ।
निश्चित तिथिपर वाय- वा हुआ।एक विद्वान ने कहा कि इस पर जो कुछ इतिहास उपलब्ध था ,वह प्र काश में आ चुका है ।नया कुछ भी नहीं प्रकाश मे आया है ।दूसरे विद्वान जो मुझे एमए मे पढाया था ,मेरे समर्थन मे बोले ।
अंतत: मेरे उत्तर से संतुष्ट होकर शोध करने की संस्तुति दे दी थी। इस तरह संस्तुति लेने में ही एक वर्ष का समय लग गया था ।
यह सन् 73 के अंतिम दिनो की बात है ।
डा.शैलेन्द्र श्रीवास्तव /मौलिक