gazal by rinki singh sahiba
ग़ज़ल
सौ बार उससे लड़ के भी हर बार हारना,
बाज़ी हो इश्क़ की तो मेरे यार हारना।
उससे शिकस्त खाने में हर बार लुत्फ है,
एक बार हारना हो के सौ बार हारना।
वो दिल पे हाथ रख दे अगर प्यार से कभी,
दिल का यही तकाज़ा है ,दिलदार हारना।
दुनिया में रोशनी है वफाओं के नूर से,
बनकर किसी के तुम भी तलबगार हारना।
जिनकी दुआओं से तेरी हस्ती कमाल है,
मां बाप के लिए तो ये संसार हारना।
है लुत्फ ज़िंदगी का मुहब्बत की कैद में,
पहलू में उनके होके गिरफ्तार हारना।
रखना बुलंदियों पे हमेशा वकार को,
तुम जान हारना, नहीं दस्तार हारना।
ऐसा भी वक़्त आया है अहद ए शबाब में,
इक फूल के लिए कोई गुलज़ार हारना।
इल्म ओ अदब में हमने ये सीखा है "साहिबा",
रख कर कलम के सामने तलवार हारना।
सिंह साहिबा
[7/14, 8:26 PM] +91 91101 19825: ग़ज़ल
वफ़ा के नूर से ख़ुद को सजा के बैठी हूँ।
किसी की याद में दुनिया भुला के बैठी हूँ। तो
क़मर को अक्स मेरा जब से कह दिया उसने,
फ़लक पे जा के मैं नाज़ ओ अदा के बैठी हूँ।
जुनून ए इश्क़ ने जोगन बना दिया मुझको,
दयार ए यार पे सर मैं झुका के बैठी हूँ।
करो न ख़ाक पे मातम मेरी जहां वालों,
अना की आग में ख़ुद को जला के बैठी हूँ।
ग़म ए हयात मेरे दर पे कब ठहरता है,
क़रीब आ के मैं अपने ख़ुदा के बैठी हूँ।
हर एक नक़्श ए क़दम का ये मर्तबा है मेरे,
मैं दश्त ओ सहरा को गुलशन बना के बैठी हूँ।
वफ़ा पे उसकी है क़ुर्बान दो जहां रिंकी,
जमाल ए यार पे हस्ती लुटा के बैठी हूँ।
रिंकी सिंह साहिबा
[7/14, 8:26 PM] +91 91101 19825: छलक न जाएं ये मेरी आँखें, निगाह उनसे चुरा रही हूँ।
है दिल में चाहत का एक गुंचा, मैं राज़ ए उल्फ़त छुपा रही हूँ।
मुझे मिटा दो ओ दीन वालो, फ़सील ए मज़हब गिरा रही हूँ।
मैं नफ़रतों के मज़ार पर अब, गुले मुहब्बत खिला रही हूँ।
बहार क्या है क़रार क्या है नहीं ख़बर ये कि प्यार क्या है,
किया नज़र ने कुसूर ऐसा,मैं दिल की दुनिया लुटा रही हूँ।
मैं चांद सूरज बुझा रही हूं, डुबो रही हूं मैं दर्द ए दुनिया,
ऐ ज़िन्दगी रख ग़ुरूर अपना, गले कज़ा को लगा रही हूँ।
सबा के दामन पे हाल दिल का लिखा है मैंने ओ जान ए जानां,
मेरी गली से तेरे नगर का मैं फ़ासला यूँ मिटा रही हूँ।
मुझे पता है वो बेवफ़ा है, पर अपनी उल्फ़त पे है भरोसा,
वो आएगा ये यकीं है मुझको, मैं रास्तों को सजा रही हूँ।
हुआ जो मुझको तो मैंने जाना,ये इश्क़ है "साहिबा" इबादत,
मिला मुहब्बत का इक मसीहा मैं उसपे ख़ुद को मिटा रही हूँ।
सिंह साहिबा
[7/14, 8:27 PM] +91 91101 19825: ग़ज़ल
आतिश ए गुल हूँ निगाहों में शरर रखती हूँ।
अपने अंदाज़ मैं दुनिया से दिगर रखती हूँ।
ख़ाक जब से कि हवाओं ने उड़ाई है मेरी,
मौसमों के भी तक़ाज़ों पे नज़र रखती हूँ।
ग़ैरमुमकिन है कि वो मुझको भुला देंगे कभी,
जिस्म की बात नहीं, दिल पे असर रखती हूँ।
मुझ तक आने ही नहीं देता है शामत कोई,
सेहन में अपने जो इक बूढ़ा शजर रखती हूँ।
दश्त लिपटा है मेरे पांव से गुलशन के लिए,
आबलों में मैं बहारों का हुनर रखती हूँ।
शम्स आता है जगाने को मुझे खिड़की से,
अपनी पलकों पे मैं इमकान ए सहर रखती हूँ।
नूर छलकेगा न क्यों मेरी ग़ज़ल से रिंकी,
मैं कहीं अश्क कहीं खून ए जिगर रखती हूँ।
रिंकी सिंह साहिबा
[7/14, 8:28 PM] +91 91101 19825: ग़ज़ल
वक़्त आने दो बताएंगे, चले जायेंगे,
क़र्ज़ मिट्टी का चुकाएंगे ,चले जायेंगे।
इश्क़ में ख़ाक ए ज़मीं तेरी जबीं पर लाकर,
चांद तारों को सजायेंगे, चले जायेंगे।
तेरे आशिक़, तेरे हमसाये, तेरे परवाने,
जान ओ दिल तुझपे लुटाएंगे, चले जायेंगे।
पासबाँ अपनी निगाहों को चराग़ाँ करके,
तेरी चौखट पे जलाएंगे ,चले जायेंगे।
तेरी रानाइयाँ, अमराइयाँ क़ायम होंगी,
गीत कोयल का सुनाएंगे, चले जायेंगे।
तेरी मिट्टी से ही रौशन हैं मुहब्बत के चराग़,
नाज़ सब तेरे उठाएंगे ,चले जायेंगे।
आखिरी सांस भी हम लेंगे तेरे आँचल में,
इस तरह इश्क़ निभाएंगे, चले जायेंगे।
आस्ताँ से तेरे बढ़कर तो नहीं है जन्नत,
इसको गुलज़ार बनाएंगे, चले जायेंगे।
चश्म ए दुश्मन जो तेरी ओर उठेगी रिंकी,
ख़ाक में उसको मिलाएंगे, चले जाएंगे।
रिंकी सिंह साहिबा
[7/14, 8:29 PM] +91 91101 19825: ग़ज़ल
चराग़ ए आरज़ू है ,और मैं हूँ,
वफ़ा की जुस्तजू है ,और मैं हूँ।
वो चुप है और मैं ख़ामोश लेकिन,
अजब सी गुफ़्तगू है, और मैं हूँ।
फ़लक का शम्स तो बस इक गुमां है,
मेरे दिल का लहू है और मैं हूँ।
फ़क़त दो लोग हैं सारे जहां में,
ऐ मेरे यार तू है और मैं हूँ।
बहुत ही दूर वो रहता है फिर भी,
नज़र के रु ब रु है, और मैं हूँ।
नहीं होता वो गर हम भी न होते,
वही तो कू ब कू है ,और मैं हूँ।
उसी का अक्स है सारे जहां में,
वो मेरे चार सू है, और मैं हूँ।
कहाँ तन्हा हूँ जीवन के सफ़र में,
अना है ,ज़िद है, खू है,और मैं हूँ।
मुझे लिखता है वो मेरे ही जैसा,
कोई तो हू ब हू है ,और मैं हूँ।
तुम्हारे इश्क़ के गुलशन में साहिब,
बड़ी रंगत है बू है और मैं हूँ।
सफर है साहिबा तख़लीक़ का ये,
ग़ज़ल की आबरू है, और मैं हूँ।
सिंह साहिबा
[7/14, 8:37 PM] +91 91101 19825: ग़ज़ल
इश्क़ की राह में गुजरने से।
प्यार बढ़ता है प्यार करने से।
इश्क़ दरिया अजीब है साहिब,
लोग जीते हैं डूब मरने से।
नूर किरदार का भी है शामिल ,
हुश्न रोशन नहीं सँवरने से।
बेख़तर कूदना ही पड़ता है,
बात बनती नहीं है डरने से।
आबला पा ही बढें आगे को,
मंजिलें कब मिली ठहरने से।
गुल ने हँसकर कहा हवाओं से,
ख़ुश्बू जाती नहीं बिखरने से।
यूँ वफ़ा शर्मसार होती है,
यार हरदम तेरे मुकरने से।
गीत ग़ज़लों में जो रवानी है,
इश्क़ की आग में निखरने से।
इल्म ए दरिया मुझे हुआ रिंकी,
उनकी आँखों में ही उतरने से।
रिंकी सिंह साहिबा