Ek stree ki vyatha by Jitendra Kabir
एक स्त्री की व्यथा
पहली नजर में...
बड़ा सभ्य और सुसंस्कृत नजर आया था
वो इंसान,
गाली-गलौज पर उतरा वो
शादी के कुछ समय बाद
जब ले नहीं सकती थी आसानी से मैं
सामाजिक लांछन का भार,
वो जानता है
कि चारा नहीं है कोई मेरे पास
सिवाय आंसू बहाकर बैठने
के अलावा चुपचाप
इसलिए छोड़ता नहीं वो अब कोई मौका
वक्त-बेवक्त मुझे जलील करने का,
भरोसा तोड़कर उसने मेरा
सूली पर मुझे टांग दिया है
मैंने भी उसको समर्पित मेरा हिस्सा
मरा हुआ सा मान लिया है।
पहले एक - दो साल...
बड़ा संवेदनशील व ख्याल रखने वाला
लगा था वो इंसान,
जिद्दी, क्रोधी और सनकी स्वभाव
दिखाया उसने उसके बाद,
सिर्फ शारीरिक जरूरत पूरी करने का
साधन भर बनकर रह गई मैं
इंसान भी हूं जीती-जागती
रहा न फिर उसको याद,
वो जानता है
उम्र के इस पड़ाव पर आकर
सामाजिक प्रतिष्ठा का है मुझपर
बड़ा दवाब
इसलिए जमकर करता है वो मनमानी
तोड़कर रोज
सुकून तलाशते मेरे ख्वाब,
अस्तित्व मिटाकर उसने मेरा
सूली पर मुझे टांग दिया है
मैंने भी उसको समर्पित मेरा हिस्सा
मरा हुआ सा मान लिया है।
जितेन्द्र 'कबीर'
यह कविता सर्वथा मौलिक अप्रकाशित एवं स्वरचित है।
साहित्यिक नाम - जितेन्द्र 'कबीर'
संप्रति - अध्यापक
पता - जितेन्द्र कुमार गांव नगोड़ी डाक घर साच तहसील व जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश
संपर्क सूत्र - 7018558314