Talash zindagi ki by komal Mishra koyal
September 23, 2021 ・0 comments ・Topic: poem
तलाश ज़िंदगी की
क्या कुसूर मेरा था,
बस अपने घर को छोड़ा था।
पूरे हो सके ख़्वाब इन आँखों के,
इसी खातिर तो अपनों से नाता तोड़ा था।
छूटे थे माँ बाप, छूटे थे कुछ अपने,
इन आँखों के सपनों के खातिर ही तो।
मैंने छोड़ा था गाँव अपना,
दूर हुआ उन गलियों से,
जहाँ बचपन गुजारा था।
पकड़ कर ऊँगली माँ कि अपने,
इस जहाँ से नाता जोड़ा था।
छूटा है साथ उनका,टूटे हैं कई सपने,
माँ के हांथों से खाने को तरसते हैं,
ये होंठ अपने।
गुजर गई ये उमर सारी,
छुटी ना ज़िंदगी मेरी तुझसे यारी।
चलाये चलती है अब भी रेले में,
जाने कहाँ ले जाएगी ये किस्मत हमारी।
इक दिन जीत जाऊँगा ये सपने दिखाती है,
अगले ही पल हमको ख़ाख दिखाती है।
जिद पर अड़ा हूँ किस्मत से भिड़ा हूँ,
अपने सपनों के खातिर इस जमाने से लड़ा हूँ।
पूरे होंगे ख़्वाब मेरे,मिल जाएंगे सारे अपने,
जाऊँगा वापस इक दिन मैं गाँव अपने।
मिलूँगा माँ से उनको गले लगाऊंगा,
हाथों से उनके सोंधी रोटी खाऊंगा।
रख कर गोदी में सिर उनके,
किस्से कामयाबी के मैं सारे उनको सुनाऊँगा।
थकन भूल कर सारी,
बस सुकून से सो जाऊँगा।।
नाम- कोमल मिश्रा "कोयल"
शहर - प्रयागराज
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