Suturmurgi pravitti by Jitendra Kabir
शुतुरमुर्गी प्रवृत्ति
अगर तुम कहते हो
कि 'साहित्य रचना' को
मुक्त रखा जाए सर्वथा
वर्तमान 'सामाजिक-राजनैतिक सरोकारों' से,
सत्ता के गलत फैसलों का कोई
विरोध न हो उसमें,
कुरीतियों की आलोचना
न हो,
दबे-कुचलों की आवाज न हो,
शोषित को न्याय दिलाने की
पुकार न हो,
सच्चाई के पक्ष में हुंकार न हो,
बुराई को दुत्कारने की
रीढ़ न हो,
गली सड़ी व्यवस्था को बदलने की
उम्मीद न हो,
तो मेरे 'दोस्त'
साहित्य के प्रति बहुत ही 'संकीर्ण व एकांगी'
दृष्टिकोण है तुम्हारा,
लाख कर लो कोशिशें झूठा तिलिस्म रचाने की
वक्त का आइना दिखा ही देगा
इतिहास में असली रूप तुम्हारा।