शान_ए–वतन- जयश्री बिरमी
December 09, 2021 ・0 comments ・Topic: poem
सादर समर्पित उन्हे जो चले गए शान_ए–वतन
ऐसा नहीं कि तुम लौट कर ना आओ
तुम बिन तो हमारी सीमाएं नंगी हो जायेगी
ना ही बचपन पनपेगा ना ही जवानी खिलखिलाएगी
रौंद देंगे इंसानियत के दुश्मन
एक दिन इस दरवेश को
जिसने लड़ी अनेकों लड़ाइयां
पाने को अपने ही देश को
लड़े थे नर और नारियां भी
छोड़ के सारे रिश्ते नाते ऐश और आराम को
कोई भटका जंगल जंगल तो
किसी ने छोड़ी राजगद्दी
ना छूटी तो वह लत थी जिसे कहते हैं आज़ादी
कोई जुला फांसी पर तो किसी ने जेली गोली
तुम भी तो इस देश के वीर हो
महावीर हो तुम
आज चले भी गए तो भूलेंगे ना हम
पर फिर एकबार आओगे जरूर तुम लौटकर
हां हां आओगे जरूर तुम
बिन तुम तो मां भारती की सुनी हो जायेगी गोद
अलविदा शब्द नहीं जो तुमको बोला जायेगा
आना जरूर शान–ए– वतन
सूना न छोड़ जाना तुम
पहले वतन तुम्हे याद करेगा
लौट कर फिर से आना तुम
लड़े तुम साहस के साथ गद्दारों से
क्यों नहीं लड़ पाते हैं हम ?
अपने ही घरमें
छुपे हुए गद्दारों से
जयश्री बिरमी
ना ही बचपन पनपेगा ना ही जवानी खिलखिलाएगी
रौंद देंगे इंसानियत के दुश्मन
एक दिन इस दरवेश को
जिसने लड़ी अनेकों लड़ाइयां
पाने को अपने ही देश को
लड़े थे नर और नारियां भी
छोड़ के सारे रिश्ते नाते ऐश और आराम को
कोई भटका जंगल जंगल तो
किसी ने छोड़ी राजगद्दी
ना छूटी तो वह लत थी जिसे कहते हैं आज़ादी
कोई जुला फांसी पर तो किसी ने जेली गोली
तुम भी तो इस देश के वीर हो
महावीर हो तुम
आज चले भी गए तो भूलेंगे ना हम
पर फिर एकबार आओगे जरूर तुम लौटकर
हां हां आओगे जरूर तुम
बिन तुम तो मां भारती की सुनी हो जायेगी गोद
अलविदा शब्द नहीं जो तुमको बोला जायेगा
आना जरूर शान–ए– वतन
सूना न छोड़ जाना तुम
पहले वतन तुम्हे याद करेगा
लौट कर फिर से आना तुम
लड़े तुम साहस के साथ गद्दारों से
क्यों नहीं लड़ पाते हैं हम ?
अपने ही घरमें
छुपे हुए गद्दारों से
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