वजूद– ए– कुर्सी- जयश्री बिरमी

 वजूद– ए– कुर्सी

वजूद– ए– कुर्सी- जयश्री बिरमी
चर्चे तो बहुत सुने हैं किस्सा–ए–कुर्सी के लेकिन भौतिकता से देखें तो कुर्सी एक तैयार सिंहासन हैं जहां बैठना हरेक व्यक्ति का स्वप्न होता हैं।चाहे वह चपरासी हो या बाबू हो या कोई बड़ा अफसर सब को अपने से बड़ी कुर्सी चाहिए।चपरासी सोचेगा क्लर्क बन जाएं और जैसे क्लर्क सब उसपर धौंस जमाते हैं वैसे ही वह भी किसी और पर अपनी धौंस जमायें।और कुछ टेबल के नीचे से भी उनके जैसे ही प्राप्त करें,ये कुर्सी के बिना अशक्य सी बात हैं।क्लर्क साब अपने ऊपरी अफसर की कुर्सी पर निगाहें जमाके बैठे होते हैं।टाई शाई पहन टशन से दफ्तर में आना और पीछे उनके एक अर्दली का उनका बैग उठाके चलना कैबिन पर पहुंचते ही किसी का दरवाजा खुल जाना।उनके आते ही पूरे दफ्तर में अनुशासन आ जाना ही शान की बात लगती हैं उन्हे।और मेज के नीचे से थोड़ी सी जगह से आनेवाली फेवर मेज के उपर से थोड़ी तगड़ी हो कर आयेगी।और वह अफसर और आगे की सोचता हैं।

  हरेक व्यक्ति अपने ही अफसर की कुर्सी को पाने की सोचता रहता हैं।सारे हथकंडे अपनाकर वह बढ़ती पाने की सोचता रहता हैं और मौका पाते ही अपने ही अफसर की बदगोई कर अपने लिए खुर्सी पाने की कोशिश में रहता हैं।

 सबसे ज्यादा कुर्सी की चाह राजकरणियों की होती हैं।पहले दल के कार्यकर्ता होता हैं वहीं से उनका कुर्सी का सपना देखना शुरू हो जाता हैं।जब वह जमीन पर काम कर रहा होता हैं तब से आसमान में कुर्सी दिखनी शुरू हो जाती हैं। 

    सबसे ज्यादा प्रिय हैं ये कुर्सी तो राजकरण वालों को।कोई भी कांड कर लेंगे अपना कुर्सी लक्ष्य को प्राप्त करने हेतु।चमचा गिरी कर लेंगे,अपने राजकीय गुरु के घर के छोटे मोटे काम करने से लेकर नेता गुरु के ड्राइवर तक बन जातें हैं ये।हरेक छोटे मोटे काम करेंगे और यहां तक कि अपना दल भी बदल लेते हैं ये,उनकी वफादारी सिर्फ कुर्सी से हैं अपने दल के साथ नहीं।उनकी वफादारी उन्हीं दलों के साथ हैं जिनके पास सत्ता हैं इसलिए सभी दलों में अयाराम गयाराम चलता ही रहता हैं।अगर किसी नेता का इतिहास को देखा जाएं तो बहुत ही चलायमान,बिना ठहरे प्रयाण वाला ही होता हैं।कभी दाई बाजू वाला दल तो कभी बाई बाजू वाला दल उनका आसरा होता हैं।शुक्र हैं कि उपर या नीचे वाले दल नहीं होते हैं वर्ना उपर वाले दल के लिए बंदर बन कूदा कूद कर सकते हैं और नीचे वाले दल के लिए कंदरा की गहराइयों तक नीचे गिर सकते हैं।जूठ बोलना और जूठ फैलाने की कला उन्हे कुर्सी लक्ष्य पाने में अति सहायक होता हैं।हर बात को उनके अपने फायदों के लिए मोड़ तोड़ करना तो उनके बाएं हाथ का खेल हैं।बस मामला हाथ में आ जाएं फिर देखो मामले की ऐसी हालत करेंगे तो मां की रोटी और बहन की राखी याद करवा देंगे।ये हरेक चीज को चूहा समझ के उससे ऐसे खेलते हैं जैसे बिल्ली चूहे का शिकार करने से पहले उससे खेलती हैं।

वैसे भी कुर्सी के हाथ भी होते हैं पैर भी होते हैं और सीट भी होती हैं।अगर नहीं होता हैं तो वह हैं सिर।तो ये सब उसे सिर प्रदान करने की होड़ में व्यस्त रहते हैं।वह चाहे शाशक दल हो या विरोध पक्ष हो सब की यही लालसा होती हैं कि ये जो हाथ,पैर,पीठ और सीट जो तैयार हैं उसपर सिर तो सिर्फ उनका ही हो।

जयश्री बिरमी
अहमदाबा

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