अभी पूस मनाते हैं.- विजय लक्ष्मी पाण्डेय
अभी पूस मनाते हैं.
किसी नें मुझसे कहा -दिसम्बर जा रहा है,
मैंनें कहा- पूस सता रहा है..!!उसनें कहा--जनवरी आएगी
हाड़ भी कँपायेगी...!!
मैंनें कहा--क्या बिगाड़ लेगी..?
हम शुद्ध भारतीय हैं..!!
जनवरी नहीं माघ मनाते हैं,
कुम्भ मेला ख़ूब नहाते हैं...
जगह -जगह अलाव जलाते हैं,
चौपालें जम कर लगाते हैं..!!
कहीं आलू तो कहीं
गुड़ भी पकाते हैं ..!!
अंग्रेजी ज़बान फिर आगे आई,
पर सफ़ेद चादर जनवरी ही तो लाई..!!
अरे, कहाँ की बात..कहाँ की आई..!!
हमारे बाजारों में तो छा गई सफ़ेद लाई..!!
कहीं काले तो कहीं सफेद तिल के लड्डू,
कहीं रेवड़ी बेटी बहनों के घर तक पहुचाई..!!
हमनें तो माघ में खिचड़ी जम के मनाई
फूल गोभी और मूली में सफ़ेदी पाई..!!
उसनें कहा--दो हजार इक्कीस जानें वाला है,
नया साल आनें वाला है..!!
मैंनें कहा--हमारे खगोल शास्त्री चैत्र में नया साल बताते हैं
ढोल ताशे भी बजाते हैं...!!
पूरे देश में बासन्ती लहराते हैं,
सब एक रंग में रंग जाते हैं..!!
दिशाएँ मुदित हो जाती हैं,
प्रकृति झूम के गाती है..!!
ये "विजय" नया साल चैत्र में मनाती है,
अगर गुलाल भी उड़ाती है..!!
बिछड़ों को ढूँढ़ लाती है
प्रेम से गले लगाती है..!!
फ़िलहाल...!!
अभी पूस मनाते हैं...!!
अभी पूस मनाते हैं..!!