संस्मरण वैशाली - डा.शैलेन्द्र श्रीवास्तव

संस्मरण  वैशाली 

इतिहास की खोज में : वैशाली ,बिहार व.कलकत्ता

संस्मरण  वैशाली - डा.शैलेन्द्र श्रीवास्तव
इंडियन काउंसिल आफ हिस्टारिकल रिसर्च से दो हजार रुपये की सहायता की स्वीकृति मिल गई थी ।इसमें लिच्छवियों से संबंधित उत्खनन स्थलों के अवलोकन , नेशनल लाइब्रेरी ,कलकत्ता में अध्ययन तथा शोध ग्रंथ की टाइपिंग आदि खर्च शामिल था ।

मैंने डा.पाण्डेय जी से "टू हूम इट मे कंसर्न " का पत्र लिया क्योंकि नेशनल लाइब्रेरी में बिना पत्र के किताबें पढ़ने की अनुमति नहीं देता है । सात दिन के लिये हास्टल उपलब्ध कराने के भी डा.पाण्डेय जी ने वहाँ कार्य रत एक मित्र अधिकारी को भी पत्र लिखकर मुझे दे दिया था ।

मैं आफिस से 15 दिन की छुट्टी लेकर ट्रेन से सीधे पटना पहुँचा था ।मैं पटना विश्व विद्यालय के इतिहास विभाग के अध्यक्ष डा.योगेन्द्र मिश्र से मिलना चाह रहा था क्योंकि मैंने उनकी पुस्तक " एन अर्ली हिस्टरी आफ वैशाली " पढ़ी थी ।इस पुस्तक में वैदिक काल से बुद्ध से पूर्व का इतिहास वर्णित है ।

अतः समय न होने के कारण मैं महेन्द्रू घाट आ गया ।यहाँ से पानी के जहाज से गंगा पार किया। फिर प्राइवेट जीप से हाजीपुर औऱ वहाँ से बस द्वारा लालगज आ गया ।

लालगंज में "श्री शारदा सदन पुस्तकालय " है जहाँ लिच्छवियों से सब़ंधित छोटी मोटी पुस्तकें थीं ।.उसमें से जरूरी सामग्री नोटबुक पर उतार लिया था ।

. पुनः बस पकड़कर मैं.बसाढ (वैशाली ) आ गया ।उस समय शाम के आठ बज रहे थे ।

गेस्ट हाऊस सामने ही उतरा था । गेस्ट हाऊस के मैंनेजर ने बताया कि गेस्ट हाऊस जापानी पर्यटकों से भरा है ।मैंने गाइड का पत्र देते हुये कहा कि मैं लिच्छवियों पर शोध कर.रहा हूँ ,यहाँ का उत्खनन तथा आसपास के क्षेत्रों का अध्ययन करना जरूरी है ।वैसे मैं भी दिल्ली से आया हूँ ।

मेरे बहुत कहने पर मैनेजर ने हाल में एक बेड उपलब्ध करा दिया ।

मेरे बगल के बेड पर जापानी महिला थी जो बौद्ध धर्म से बहुत प्रभावित थी ।जब मैंने बताया कि मैं भी बुद्ध के जीवन से संबंधित स्थलों का अध्ययन करने ही आया हूँ क्योंकि उन स्थलों से लिच्छवियों का संबंध रहा था ।

मेरी बात सुनकर उसने दो दिन तक मेरे साथ ही वैशाली के भग्नावशेषों का भ्रमण किया था । हर स्थल से जुड़ी ऐतिहासिक जानकारी वह बड़े ध्यान से सुनती थी ।

अगले दिन सबसे पहले हम दोनों उस विशाल उत्खनन को देखने गये जिसे स्थानीय लोग " राजा विशाल का गढ़ा " कहते थे जबकि यह स्थल वज्जि संघ जिसमें लिच्छवि भी शामिल रहे हैं ,का संथागार ( संस्था गार )था जहाँ संघ के सदस्य ( राजन्) लोग शासन संबंधी मुद्दों पर विचार विमर्श किया करते थे।

उत्खनन देखने के बाद हम दोनों टहलते हुये पास के गाँव पहुंचे । मिट्टी व खपरैल के घर थे ।मुस्लिम आबादी थी ।वहीं एक स्तूप के ऊपर दरगाह दिखी जिसे एक गाँववासी ने " मीर कासिम की दरगाह " बताया ।लेकिन वास्तव में वह बौद्ध स्तूप था जिसके ऊपर किसी ने फकीर शेख काजिम सुन्तारी (1434-95) की मजार बनाकर इसे मुस्लिम धर्म स्थलों से जोड़ दिया ।

वहाँ से चलकर हम बावन पोखर पहुँचे ।इस पोखर के किनारे बावन देवता का मंदिर है । जैन धर्म की मूर्तियाँ भी रखी थी ।मंदिर के सामने ही महावीर स्वामी की संगमरमर की चरण पादुका किसी श्रद्धालु ने बनवा दी थी., पहले यहाँ सामान्य पत्थर की चरण पादुका थी ।

पोखर की दूसरी तरफ कमल सरोवर था जिसमें आधा फुट पानी था ।हम पानी में ही आगे बढ़ते हुये गंगा सागर व खरोना पोखर आ गये जिसे बुद्ध काल में अभिषेक पुष्करणी कहते थे जिसकी सुरक्षा के लिये जाल से ढँककर रखते थे।

पुष्करणी का उपयोग नव निर्वाचित सदस्यों को स्नान कराकर अभिषेक करने में किया जाता था ।तब उन्हे राजा की उपाधि दी जाती थी ।पुष्करणी का उपयोग बाहरी व्यक्ति नहीं कर सकता था ।एक जातक के अनुसार एक बार पड़ोसी राज्य का राजकुमार ने चुपके से स्नान कर लिया था ।

लिच्छवियों को सूचना मिली तो उन्होंने राज कुमार का पीछा कर उसे मार डाला था ।

सरोवर के किनारे एक प्राचीन शिव मंदिर था ।कुछ पर्यटक स्नान कर मंदिर में पुष्प चढ़ा रहे थे ।

पुष्करणी के बगल एक छोटा सा संग्रहालय था जिसमें छुट फुट पुरातत्व महत्व के टेरीकोटा रखे थे । पर्यवेक्षक ने बताया कि उत्खनन में प्राप्त कलात्मक वस्तुएँ खंडित मूर्तियाँ पटना म्यूजियम में रखी गईं हैं ।

पोखर के बगल जापान ने स्वर्ण कलश निर्मित स्तूप अभी हाल में बनवाया है ।

चीनी यात्री ह्वेनत्सांग ने पुष्प करणी से कुछ दूर ( 5-6 ली ) उस स्तूप का जिक्र किया है जिसे वैशाली के लिच्छवियों ने बुद्ध के अस्थिअवशेष पर बनवाया था ।खुदाई में मिला घड़ानुमा पात्र जिसमें अस्थि अवशेष का भाग रखा था ,पटना म्यूजियम में बेहद कड़ी सुरक्षा में रखा है ।बौद्ध संसार में यह पात्र अनमोल है । स्तूप कि जगह सूखा कुँआ दिख रहा था ।

मैंने उसे कुयें की ओर इशारा कर बताया कि यह वही स्थान है जहाँ बुद्ध के अस्थि अवशेष पर स्थापित.पवित्र स्तूप था ।

मेरी बात सुनकर वह कुयें की ईंट पर बैठकर ध्यान मुद्रा में आँख बंद कर.दस मिनट बैठी रही थी ।

. शाम गहराने लगी थी तो हम गेस्ट हाऊस लौट आये ।

फ्रेश. होकर सामने एक छप्पर नुमा ढाबे में एक रुपये में पेट भर दाल. भात खाया ,रोटी बनती ही नहीं थी ।

अगले दिन मैं अशोक द्वारा स्थापित सिंह स्तंभ देखने निकल पड़ा । यह स्तंभ उसी जगह स्थापित किया गया था जहाँ से महात्मा बुद्ध अपना प्रिय भिक्षा पात्र लिच्छवियों को स्नेह प्रतीक के रूप में भेंट किया था ।

सम्राट अशोक ने उसी जगह पर स्तंभ स्थापित कराकर. वहीं से यात्रा शुरू कर नेपाल गये थे । गाँधी जी इसी सिंह स्तंभ से शांति के लिए नेपाल.यात्रा की थी । यह स्तंभ अशोक द्वारा स्थापित पहला स्तंभ माना जाता हैक्योंकि लाट के ऊपर चौकोर आधार शिला पर एक मुखी सिंह स्थापित है जबकि अन्य इलाके में मिले अशोक स्तंभ गोल आधार शिला पर तीन सिंह मुख हैं।

बनिया गाँव ( वाणिज्य ग्राम) है जहाँ महावीर स्वामी वर्षावास किया करते थे । दो घंटे पद यात्रा कर पहुँचा था ।

ह्वेनत्सांग ने अपनी यात्रा संस्मरण में वैशाली के चारों दिशा में चौमुखी महादेव का उल्लेख किया है ।यह चारों स्थल बुद्ध के प्रवचन स्थल माने जाते हैं जहाँ वे लिच्छवियों को प्रवचन दिया करते रहे होंगे ।

एक चौमुखी महादेव इसी गाँव में था ।यह काले चित्तीदार पत्थर का विशाल चौमुखी महादेव.है जिसका बड़ा हिस्सा जमीन के भीतर.था ।इसपर पाली भाषा में लेख खुदा था जिससे इसे गुप्तकालीन स्तंभ होने का कहा जाता है ।ऐसा ही एक चौमुखी महादेव वैशाली के उत्तर कम्मन छपरा गाँव में मिला है । अन्य दो चौमुखी .महादेव की खोज की जा रही थी ।

चौमुखी महादेव देखने के बाद अशोक स्तंभ जाने का रास्ता पूछा तो ग्रामीण ने कहा कि अशोक लाट तो मैं नहीं जानता हूँ पर आगे चलकर कोल्हुआ गाँ व मिलेगा वहीं पर एक"भीम की लाठी " है उसीके बगल " भीम का पल्ला " है ।उसी को देखने बाहर से लोग आते हैं ।

मैंने अनुमान लगाया कि ग्रामीण जिसे भीम की लाठी कह रहा है वही अशोक स्तंभ है ।

मैं कोल्हुआ गाँव पहुँच कर अशोक स्तंभ देखा ।वहाँ पहले से विदेशी पर्यटक मौजूद थे ।

अशोक स्तंभ के एक ओर पोखरी थी तथा दूसरी ओर बुद्ध के प्रिय शिष्य आनंद का काफी बड़ा स्तूप था ।

बौद्ध साहित्य में यह पोखरी."मर्कट पोखर " के नाम से प्र सिद्ध है ।

कथा है, एक दिन बुद्ध एक पोखर के किनारे उदासमना बैठे थे ।उनकी दशा देख एक बंदर पास के कुंऐ में लगे मधु के छत्ते से शहद निकाल कर एक पात्र में ले आया औऱ बुद्ध को अर्पित किया था ।

उसी कारण. बौद्ध संसार में यह पोखर "मर्कट पोखर" के नाम से प्रसिद्ध हो गया । इस घटना का दृश्य बुद्ध मूर्ति के आधार शिला मे देखने को मिलता है ।

पास के आनंद स्तूप के पास ही वैशाली की आम्रपाली का आम्रवन था जिसे उसने बुद्ध को बौद्ध विहार के लिए दान मे दे दिया था ।

वहाँ से मैं कम्मन छपरा गांव पहुँचा । चौमुखी महादेव को देखा जिसका तीन भाग भूस्तर से नीचे था ।बताया गया मुस्लिम हमलावरों से बचाने के लिये इसे मिट्टी से ढँककर टीला बना दिया गया था इसकारण यह सुरक्षित रहा है ।

काफी देर तक घूमने के कारण मैं थक गया था इस कारण बस से गेस्ट हाऊस लौट आया था ।

डा.शैलेन्द्र श्रीवास्तव
6ए-५३वृंदावन कालोनी
लखनऊ-226029

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