कविता : कान्हा तू काहे करत मनमानी
कान्हा तू काहे करत मनमानी
बार -बार समझाया तुझकोफिर भी एक न मानी
नित नवीन शरारत करिके
मोहे कियो हलकानी
कान्हा तू काहे करत मनमानी ।
अपने घर में भरपूर है माखन
देख औरन की ललचानी
ग्वालों के संग चोरी करत है
ग्वालन हैं खिसियानी
लाला , मत कर तू नादानी
कान्हा तू काहे करत मनमानी !
कान मरोड़ा कान्हा का ,
क्रोधित हुई नंदरानी
माँ का कहना जो ना माना
तो मार पड़ेगी खानी
पिघल गया फिर माँ का दिल
देख रूप बचकानी
कान्हा तू काहे करत मनमानी ।
माँ की डाँट में भी स्नेह सुधा है ,
कहते हैं सब ज्ञानी ,
इसीलिए तो देवलोक भी रहता
धरा पर आने को अकुलानी,
विष्णु रूप हैं कान्हा ,
है मैया यशोमती अंजानी ।
मौलिक एवं स्वरचित ,
माँ का कहना जो ना माना
तो मार पड़ेगी खानी
पिघल गया फिर माँ का दिल
देख रूप बचकानी
कान्हा तू काहे करत मनमानी ।
माँ की डाँट में भी स्नेह सुधा है ,
कहते हैं सब ज्ञानी ,
इसीलिए तो देवलोक भी रहता
धरा पर आने को अकुलानी,
विष्णु रूप हैं कान्हा ,
है मैया यशोमती अंजानी ।
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