स्वामी विवेकानंद - सुधीर श्रीवास्तव

 स्वामी विवेकानंद 

स्वामी विवेकानंद - सुधीर श्रीवास्तव
हमारा देश अनेक महान विभूतियों से सदियों से भरा पड़ा है, जिनसे हम अनवरत प्रेरणा पाते आ रहे हैं। सीखते आ रहे हैं। यही नहीं यदि हम उन्हें अपने जीवन में आत्मसात कर लेतें है तो हमारी निराशा से भरी जिंदगी में प्रकाश और उसके अंदर इतना आत्मविश्वास भर जाता  है कि उसकी जिंदगी में नव उत्साह का संचार हो जाता है।

  ऐसे ही महापुरुष हैं स्वामी विवेकानंद जी। कायस्थ कुल में 12 जनवरी 1863 को माँ भुवनेश्वरी देवी की कोख से कोलकाता (तब कलकत्ता) में जन्में विवेकानंद जी के बचपन का नाम नरेन्द्र नाथ दत्त था।

पाश्चात्य सभ्यता में भरोसा रखने वाले उनके पिता विश्वनाथ दत्त जी अंग्रेजी पढ़ाकर उन्हें भी उसी राह पर ले जाना चाहते थे। परंतु बचपन से ही तीव्र बुद्धि वाले नरेन्द्र परमात्मा को पाने के इच्छुक रहे।जिसकी खातिर पहले वे ब्रह्म समाज गये ,मगर संतुष्ट नहीं हुए।

  उनके पिता विश्वनाथदत्त जी की 1884 में मृत्यु के बाद घर का भार नरेन्द्र पर आ गया।घर की दशा दयनीय और गरीबी होने के बाद भी अतिथि सेवी रहे।नरेन्द्र का विवाह भी नहीं हुआ था। खुद भूखे रहते मगर मेहमान की आवभगत का पूरा ख्याल रखते। वर्षा में खुद भीगते रात गुजार देते, मगर मेहमान को बिस्तर पर सुलाते।

 रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर प्रथम तो तर्क के उद्देश्य से उनके पास गये थे,परंतु परमहंस जी उन्हें देखकर ही पहचान गये कि जिसकी उन्हें प्रतीक्षा थी वो यही शिष्य है।परमहंस जी की कृपा प्रसाद से नरेन्द्र को न केवल आत्म साक्षात्कार हुआ बल्कि वे उनके प्रमुख शिष्यों में भी एक हो गये। स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने ही उन्हें यह नाम दिया।अपने गुरु को अपना जीवन समर्पित कर चुके स्वामी विवेकानंद जी

परिवार और कुटुंब की परवाह किए बिना ही उनके अंतिम दिनों में गुरुसेवा में समर्पित रहे। कैंसर पीड़ित गुरु के थूक,कफ, रक्त आदि की साफ सफाई का वे पूरा ध्यान रखते और खुद करते।

गुरु के प्रति निष्ठा और भक्ति का ही प्रताप था कि वे अपने गुरु के न केवल तन की अपितु उनके दिव्य, अलौकिक आदर्शों की सेवा करने में सफल हुए।

उन्होंने अपने गुरुदेव को न केवल समझा बल्कि अपने  अस्तित्व तक को उनके स्वरूप में विलीन और समाहित भी कर लिया।

संन्यास के बाद ही इनका नाम स्वामी विवेकानंद हुआ।जो उन्हें अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी ने दिया था।

मात्र 25 वर्ष की अवस्था में ही नरेन्द्र ने सन्यासियों जैसे गेरुआ वस्त्र पहन लिया और पूरे भारत का पैदल भ्रमण किया।

स्वामी जी ने वर्ष 1883 में शिकागो के विश्व धर्म सम्मेलन में सनातन धर्म का प्रतिनिधित्व भारत की ओर से किया । यह  वो समय था जब यूरोपीय और अमेरिकन लोग भारतवासियों को बहुत ही हेय और नीच दृष्टि से देखने थे। वहां लोगों ने बहुतेरे प्रयत्न किए कि स्वामी विवेकानंद जी को सर्वधर्म सम्मेलन में बोलने का अवसर ही न मिल सके।लेकिन अमेरिका के ही एक प्रोफेसर के प्रयास से स्वामी जी को थोड़े समय बोलने का मौका मिला। उस थोड़े से समय में ही उनके विचार सुनकर सभी विद्वतजन चकित रह गए। फिर तो अमेरिका में स्वागत ही स्वागत हुआ। तीन वर्षों तक अमेरिका में रहे स्वामी विवेकानंद जी ने वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अलौकिकता का अद्भुत ज्ञान दिया।वहां इनके अनुयायियों का बड़ा समूह हो गया।विवेकानंद जी का मानना ही नहीं दृढ़ विश्वास भी था कि भारतीय दर्शन और अध्यात्म के बिना संसार अनाथ होकर रह जाएगा। संसार भर में प्रचार प्रसार करने के उद्देय से उन्होंने रामकृष्ण मिशन की स्थापना सामाजिक कार्यों और समाज सेवा के लिए किया। अमेरिका में भी उन्होंने मिशन की शाखाएं खोलीं। बहुत से अमेरिकी विद्वानों ने स्वामी विवेकानंद जी का शिष्य होना स्वीकार किया।

स्वामी जी कहते थे कि जिस पल मुझे मालूम हुआ कि हर व्यक्ति में ईश्वर है,तभी से मैं हर व्यक्ति से न केवल ईश्वर की छवि देखता हूँ, बल्कि  उसी क्षण से बंधन मुक्त भी  हो गया हूँ। उनका मानना था कि जो चीज बंद रहती है वो धूमिल पड़ जाती है,इसीलिए मैं आजाद हूँ। उन्होंने ने अल्पायु में ही अपने ज्ञान के प्रकाश और विचारों जन मानस को किया।

    स्वामी विवेकानंद जी खुद को गरीबों का सेवक मानते थे। उन्होंने संसार भर में भारत के गौरव को बढ़ाने का जीवन भर प्रयत्न जारी रखा।

   39 वर्ष की अवस्था में बेलूर मठ  बंगाल रियासत (ब्रिटिश राज) में 04 जनवरी 1902 में स्वामी विवेकानंद जी ने अंतिम साँस लेकर अपने प्राण त्याग दिए। जिनकी स्मृति में इस दिवस को स्मृति दिवस के रुप में मनाया जाता है।

     उनके अनमोल विचार हमें हौसला और आत्मविश्वास देने वाले हैं।हमारे जीवन को बदलने वाले हैंं। 

    आइए उनके विचारों को जानते हैं और जीवन में उतारने का प्रयास करते हैं।

  1. उठो, जागो और जब तक लक्ष्य प्राप्त न हो जाय ,तब तक न रुको।

2. दुनिया, संसार में सबसे बड़ा पाप खुद को कमजोर समझना है।

3. तुम्हें खुद से अंदर से सीखना है क्योंकि आत्मा से बड़ा कोई शिक्षक नहीं है। न तो तुम्हें कोई पढ़ा सकता है न ही आध्यात्मिक बना सकता है।

4. सत्य हमेशा एक ही रहेगी, बस उसके बताने के तरीक़े बहुतेरे हो सकते हैं।

5. अंदरूनी स्वभाव का बड़ा रुप भर है बाहरी स्वभाव।

6. हम स्वयं अपनी आँँखों को बंद कर लेते है और अंधकार का विलाप करते हैं

जबकि समस्त ब्रह्मांड की सारी शक्तियां हमारे भीतर पहले से ही मौजूद हैं।

7.विश्व एक व्यायामशाला है,जहाँ हम सब अपने को मजबूत बनाने के लिए आते हैं।

8. जब भी दिल और दिमाग का टकराव हो तो हमेशा दिल की सुनो।

9.प्रेम जीवन है,द्वेष मृत्यु है,विस्तार जीवन और संकुचन मृत्यु है।शक्ति जीवन तो निर्बलता मृत्यु है।

10. जिस किसी दिन आपके सामने समस्या न आये तो आप सुनिश्चित हो सकते है कि आप गलत राह पर  हैं।

   स्वामी जी को हमारी श्रद्धांजलि तभी सार्थक और औचित्यपूर्ण है जब हम उनके विचारों को आत्मसात करें, जीवन में उतारें और निरंतर अनुसरण करें।                                           

आलेख

 सुधीर श्रीवास्तव
     गोण्डा, उ.प्र.
   8115285921

मौलिक, स्वरचित

Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url