गीत - गाँव का मेला- सिद्धार्थ गोरखपुरी

गीत - गाँव का मेला

गीत - गाँव का मेला
गाँव का मेला कोई फिर से दिखाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
बाबा और बाबू का मेला घूमाना रे
लकड़ी के खिलौने को जिद कर जाना रे
दोस्तों को खिलाना और दोस्तों का खाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
बाबा - दादी, अम्मा - बाबू से रूपया कमाना रे
रूपया कई -कई बार गिनना सबको दिखाना रे
गट्टा, लाई, पेठा, कचालू घर पर लाना रे
गट्टा -लाई -पेठा सुबह उठ कर खाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
बुढ़िया कचालू वाली कभी-कभी दिखती है
बिक्री हो गयी कम है चंद सिक्के गिनती है
उसके कचालू का पैसा अब भी है चुकाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
बाबा खिलौने वाले लढ़िया न बनाते हैं
कब बनेगी लढ़िया सुन हल्का मुस्कुराते हैं
बाबा का दिलाया लढ़िया बल भर चलाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
नए बच्चे आजकल के इन सबसे
अनजान है
चार दिन को गाँव आते ,घर पे बने
मेहमान हैं
आदमी को दिखता केवल पैसा कमाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे
गाँव के मेले में गुम है बचपन सुहाना रे
मैं खो गया हूँ मुझे कोई ढूंढ के लाना रे
गाँव के मेले खातिर कोई ढूंढो बहाना रे
लौट के आता नहीं फिर वो जमाना रे

-सिद्धार्थ गोरखपुरी

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