पाखंड लगता है- जितेन्द्र ' कबीर '
March 26, 2022 ・0 comments ・Topic: Jitendra_Kabir poem
पाखंड लगता है
अपने सारे संसाधन
झोंक देता है
युद्ध के मैदान में
जीत के लिए,
विजय उसका चरित्र है
लेकिन
जब वो लगाता है मुखौटा
संत का
तो पाखंड लगता है।
एक रणनीतिकार!
साम दाम दण्ड भेद सारे तरीके
अपनाता है
शत्रु को अलग-थलग कर
हराने के लिए,
कुटिलता उसका चरित्र है
लेकिन
जब वो लगाता है मुखौटा
भोलेपन का
तो पाखंड लगता है।
एक अतिवादी!
अपने मत के विरोध की
हर संभावना का
छल-बल से करता है
प्रतिकार,
द्वेष उसका चरित्र है
लेकिन
जब वो लगाता है मुखौटा
समभाव का
तो पाखंड लगता है।
एक अवसरवादी!
अपने मंतव्य की राह में
आने वाले
हर एक कांटे को
उखाड़ फेंकता है निर्ममता से,
क्रूरता उसका चरित्र है
लेकिन
जब वो लगाता है मुखौटा
दयालुता का
तो पाखंड लगता है।
एक सुविधा प्रेमी!
राज्य के खर्चे पर
जुटाता है अपने लिए
तमाम सुविधाएं,
विलासिता उसका चरित्र है
लेकिन
जब वो लगाता है मुखौटा
जनसेवा का
तो पाखंड लगता है।
एक प्रसिद्धि पिपासु!
अपने छोटे से छोटे काम को
प्रचारित करता है
दुनिया के महानतम कामों में,
आत्मश्लाघा उसका चरित्र है
लेकिन
जब वो लगाता है मुखौटा
दीन-हीन का
तो पाखंड लगता है।
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