कहानी - गुरु दक्षिणा

कहानी - गुरु दक्षिणा

कहानी- "गुरु दक्षिणा"

वृंदा ने अपने पति संजय से कहा सुनिए दिवाली आ रही है, अडोस-पड़ोस के सारे बच्चें नये कपड़े सिलवा रहे है और पटाखों की लिस्ट बना रहे है। दिती और देवांश भी ज़िद्द कर रहे है नये कपड़े और पटाखों के लिए कुछ जुगाड़ कीजिए ना। मैं तो पिछले साल जो साड़ी ली थी उसी से काम चला लूँगी, पर बच्चों को कैसे समझाएंगे, ये त्योहार आते ही क्यूँ है। हमारे लिए तो खुशियाँ बैरी हो गई है। अब तो कुछ बचत थी वो भी लाॅक डाउन के चलते ख़त्म होने को है, ना आपकी कहीं नौकरी लग रही कठिन समय कैसे कटेगा समझ में नहीं आ रहा।

करो मुफ़्त में मेहनत आप कितनी बार कहा ट्यूशन फीस लिया कीजिए पर उसूलों की पिपूड़ी ही बजाते रहे। लोग ट्यूशन कर करके लखपति हो गए और एक आप है। संजय ने कहा विद्या बेची नहीं जाती पगली, मैं तो बस अपना ज्ञान बांट रहा हूँ। और नेक काम का बदला ईश्वर एक दिन जरूर देता है।

संजय ने कहा हाँ मलाल जरूर है ईश्वर ने पंद्रह साल बाद हमें दो बच्चों की सौगात दी पर मैं बच्चों को इतनी सी खुशी भी नहीं दे पा रहा। क्या करूँ रोज़ काम ढूँढने सुबह से शाम भटकता हूँ पर कहीं से कोई उम्मीद नहीं दिख रही, हर दहलीज़ से ना ही सुनने को मिलती है। मेहनत करके कमाना चाहता हूँ पर अब तो भगवान ही मालिक। इतने में डोरबेल बजती है, संजय ने दरवाज़ा खोला, एक युवक हाथ जोड़कर नमस्कार करते बोला सर क्या मैं अंदर आ सकता हूँ। संजय ने कहा जी बिलकुल आईये पर मैंने आपको पहचाना नहीं। युवक ने कहा सर आप मुझे भूल सकते है पर मैं अपने भगवान को कैसे भूलूँ। मेरा नाम सिद्धार्थ गोस्वामी है अब पहचाना? 

हम ठाकुर द्वार चाॅल में आपकी पड़ोस में ही रहते थे, मेरे बापू बहुत गरीब थे मुझे पढ़ाने के लिए उनके पास पैसे नहीं थे आपने मुझे मुफ़्त में पढ़ाया। और कभी-कभी आपके घर खाना भी खा लिया करता था, आपने मेरी नींव पक्की की थी, और मेरे बापू को नौकरी भी दिलवाई थी। आपकी शिक्षा की वजह से मैं खूब आगे तक पढ़ा आज एक बड़ी कंपनी में मैनेजर हूँ। आज मैं जो कुछ भी हूँ आपकी बदोलत हूँ, और सिद्धार्थ ने एक लिफाफा निकालकर संजय के हाथ में रख दिया।

संजय ने कहा इसमें क्या है? और खोलकर देखा तो लगभग पचास हज़ार जितने रुपये लिफाफे मैं रखे हुए थे, संजय ने कहा ये क्यूँ, ये मैं कैसे ले सकता हूँ। सिद्धार्थ ने कहा सर मना मत कीजिएगा इसे मेरी फीस समझ कर रख लीजिये। मेरी कई दिवालियाँ आज आपकी वजह से रोशन हुई है, इस दिवाली पर आपके घर में दीया जलाने का सौभाग्य मुझे दीजिए। संजय ने बहुत मना किया पर सिद्धार्थ ने अपनी कसम देकर पैसे वृंदा के हाथ में रख दिए। संजय ने कहा ये रुपये मुझ पर उधार रहें, ईश्वर कृपा से अच्छे दिन आते ही मैें चुका दूँगा, और नम आँखों से धन्यवाद करते कहा तुम्हें हमारा पता किसने दिया ये तो बताओ? सिद्धार्थ ने कहा आपने न्यूज़ पेपर में नौकरी के लिए एड जो दी थी उसे पढ़ कर दौड़ा चला आया। और आपने नौकरी के लिए विज्ञापन दिया था इस बात से मैं समझ गया आप मुसीबत में है, तो बस छोटा सा उपहार लेकर आ गया। संजय ने कहा हाँ वक्त की मार ने कहीं का नहीं छोड़ा फिर भी जिए जा रहे है।

सिद्धार्थ ने कहा मैं जानता हूँ सर आपने हंमेशा देना ही सीखा है मांगना नहीं, और ये पैसे मैं आप पर तरस खाकर नहीं दे रहा ये तो आपका उधार चुका रहा हूँ। आप जो बचपन में नि:स्वार्थ भाव से मुझे नहीं पढ़ाते तो आज कहीं मजदूरी कर रहा होता तो बस इसे मेरी गुरूदक्षिणा समझ कर रख लीजिए। 

वृंदा अब भी पैसे हाथ में लेकर खड़ी थी पति की आज्ञा के इंतज़ार में, संजय ने कहा वृंदा पैसे अलमारी में रख दो। और सिद्धार्थ को गले लगाकर आशिर्वाद देते बोला आजकल कौन किसीको याद रखता है, मुझे गर्व है तुम जैसा नेक और इमानदार लड़का मेरा विद्यार्थी रहा, ईश्वर तुम्हें खूब तरक्की दें। और सिद्धार्थ ने कहा और ईश्वर आप जैसे शिक्षक सबको दे। दिती और देवांश के हाथों में जल रही फूलझडी में सिद्धार्थ का चेहरा झिलमिला रहा था, ये देखकर संजय का सर फ़ख्र से उपर उठ गया और वृंदा के कानों में धीरे से कहा, देखा ईश्वर नेक काम का बदला जरूर देता है, वृंदा ने कान पकड़ कर कहा मान गए उस्ताद।

भावना ठाकर 'भावु' (बेंगलोर, कर्नाटक)

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