ढलता सूरज- जयश्री बिरमी

ढलता सूरज

ढलता सूरज- जयश्री बिरमी
मां हूं उगते सूरज और ढलते सूरज सी
उगी तो मां थी विरमी तब भी मां ही थी
जब हौंसले थे तब भी और अब उम्र ढली तब भी
बसे रहते हैं वही छोटे छोटे कदम
और वही प्यारी मुस्कान दिल में
अब चाहे जिन्हे वह हो गए आदमकद आयने से
पता नहीं क्षय के बाद क्या होता होगा
याद रख पाऊंगी या सब कुछ छोड़ जाऊंगी
अगर छूट भी गए तो कैसे भूल पाऊंगी
और कैसे जी और जा पाऊंगी छोड़ उन्हे
जीया हैं उम्र भर जिसके लिए
ओह! तब तो जीवनलीला ही समाप्त हो जायेगी
तो विरह में जीने का सवाल होगा ही कहां?

जयश्री बिरमी
अहमदाबाद

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