कविता-मां ही जन्नत
कविता-मां ही जन्नत
न मैं मंदिर पुजू न मस्जिद और न ही गुरूद्वारा,मां के चरणों में ही समाई है देखो ये संसार सारा।
मां का गर मिल जाए आशीष तो मैं तीनों लोक दे दूं वार,
मां से ही है मेरा ये जीवन और संसार मां के चरणों में हरिद्वार।
न पढा हनुमान चालीसा और न ही गीता बाईबल कुरान,
फिर भी मिल जाती है मेरी रूह को एक अलग सी सुकून।
मां की ममता में ही सदा नजर आए मुझे ईश्वर की सूरत,
फिर क्यों पुजू मैं किसी मंदिर मस्जिद गुरुद्वारा की मूरत।
मां के बिना अधूरे हैं स्वयं जगत के भी पालनहारी,
लिए हर बार अवतार और बनें मां नाम के पुजारी।
मां के चरणों में पुरी हो जाती है मेरी सारी मन्नत,
नहीं जाना मुझे किसी मंदिर मस्जिद और जन्नत।
ये सब तो है मेरी मां के सामने धूल बराबर,
मां की ममता ही है मेरे जीवन का आधार।
न जानूं ईश्वर न जानूं अल्लाह मैं तो हूं एक अज्ञानी,
मां ही है इस दुनिया में सबसे बड़ी ज्ञानी।।
स्वरचित अप्रकाशित मौलिक
कुमारी गुड़िया गौतम (जलगांव) महाराष्ट्र