कविता-वो पंछियों के घरौंदे
वो पंछियों के घरौंदे
आज भी उसी पेड़ की शाख परवही पंछियों के घरौंदे हम पाए थे।।
जो कभी हमनें मिल तूफानों से बचाए थे
बचपन कि वो दोस्ती नादानियों संग
मिल हम तुम अटखेली कर निभाए थे।।
याद है कितनी बार हम पेड़ कि शाख
पर झूले बांध एक दूजे को झुलाए थे।।
ना जाने कितनी बार हम दोस्ती नहीं
तोड़ेगे यही तो यही बैठ कसमें खाए थे।।
तुम जब कभी गिरे हम आगे बढ़ तुम्हें
कांधे का सहारा देकर उठाए थे।।
इसी दरोख्तर के नीचे हम कितने ही किस्से
कहानियां मनघड़ंत बाते भी सुनाए थे।।
बड़े होते-होते जवानी कि दहलीज पर आकर
तुम शहर बसे , आज तुम हमें भुलाए थे।
हम तो आज भी तेरी आस , याद में बैठ खत
लिख बैठे खुद को ना हम रोक पाए थे।।
हर एक शब्द में मेरी सांसों के तार तुमसे बंधे
यही संदेश लिख हम तुम्हें भिजवाए थे।।
लौट आओ मेरी जिंदगानी ए दोस्त मेरे
महसूस हुआ आज हम तुम्हें रुह में बसाए थे।।
सच तेरे इंतजार में मेरी पलके आज बिछी हैं
कहते हैं दिल , रुह से हम तुझे चाहे थे।।२।।
वीना आडवाणी तन्वी
नागपुर , महाराष्ट्र