लड़कियों को आइटम नहीं ज़िम्मेदारी समझो

"लड़कियों को आइटम नहीं ज़िम्मेदारी समझो"

भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर
श्रुति का जाॅब इंटरव्यू था मुंबई की एक मल्टीनेशनल कंपनी में तो अपने पापा को बार-बार मना रही थी, पापा चलिए न आप मेरे साथ मैं अकेली कैसे जाऊँ उपर से रिज़र्वेशन भी नहीं मिला, ट्रेन का सफ़र कैसे कटेगा? प्रकाश भाई बोले बेटी परसों मेरी महत्वपूर्ण मिटिंग है नहीं आ सकता समझो। और फिर मान लो तुम्हारी जाॅब लग गई तो कल को तुम्हें अकेले ही आना-जाना पड़ेगा हर बार तो मैं साथ नहीं आ पाऊँगा आदत डालो।
यूँ श्रृति को अकेले ही जाना पड़ा।
प्रकाश भाई ट्रेन तक छोड़ गए श्रुति को, श्रृति पढ़ने की शौक़ीन थी तो बैग से अपने पसंदीदा लेखक चेतन भगत की बुक निकाल कर कहानी पढ़ने में मशगूल हो गई। ट्रेन अभी अहमदाबाद से निकली ही थी की कुछ समय बाद तीन चार टपोरी लड़के श्रृति की सामने वाली सीट पर बैठकर गंदे जोक्स और गंदे इशारे करके श्रृति को छेड़ने लगे। क्या माल है रे तू तो दूसरे ने कहा क्या आइटम है चलो ज़रा चखें तो सही। पहले तो श्रृति ने नज़र अंदाज़ किया मानों देखा ही नहीं, तो उन गुंडों की हिम्मत बढ़ गई। एक लड़का उठकर श्रृति की बगल में बैठ गया और गाल को छूकर चूमने की कोशिश करने लगा। श्रृति ज़ोर से चिल्लाई, छोड़ो मुझे हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी मुझे छूने की उस पर सारे लड़के श्रृति के उपर टूट पड़े। श्रृति चिल्लाने लगी इतने में बाजु के कंपार्टमेन्ट से उठकर एक लड़का आया और चुटकी बजाते हुए उन लड़कों से बोला, ओ हैलो भाई साहब मैं वाशरूम गया इतनी देर में मेरी बीवी को अपनी प्रॉपर्टी समझ लिया क्या? चलो निकलो वर्ना रेल्वे पुलिस को बुलाता हूँ। चारों लड़कों की सिट्टी-पिट्टी गूल हो गई और सौरी सौरी बोलते निकल लिए। वो लड़का भी वापस अपनी जगह पर जाने लगा तो घबराई हुई श्रृति ने हाथ पकड़ लिया और बोली, बहुत-बहुत धन्यवाद आपका, आप नहीं आते तो आज पता नहीं क्या हो जाता। मुझे बहुत डर लग रहा है, दिक्कत ना हो तो आप यहीं पर बैठिए ना। श्रृति का हाथ पकड़ना तरंग के तनमन में बिजली सा करंट जगा गया। दो जवाँ दिलों को जैसे पहली नज़र में एक दूसरे से प्यार हो चला। श्रृति की आँखों की कशिश ने तरंग को एक अनमोल रिश्ते में बाँध लिया और तरंग की सादगी और महिलाओं के प्रति आत्मिक भाव वाली अदाओं ने श्रृति का दिल जीत लिया। तरंग श्रृति को दिलासा देते वहीं बैठ गया, दोनों अब सहज हो गए। बातों ही बातों में एक दूसरे के बारे में जाना, एक दूसरे को पहचाना। दोनों को अजनबी वाली फीलिंग्स ही नहीं हुई मानों सालों से एक दूसरे को पहचानते हो। पूरी रात बातों में बीत गई सुबह मुंबई स्टेशन पर ट्रेन रुकते ही दोनों को एहसास हुआ कि बिछड़ने का वक्त आ गया पर दोनों ही एक दूसरे को खोना नहीं चाहते थे, फोन नं के लेन-देन के बाद मिलने का वादा हुआ और मिलन के सिलसिले चलने लगे और उस एक रात के सुहाने सफ़र ने दोनों को ज़िंदगी का हमसफ़र बना दिया। अब तो श्रृति और तरंग दोनों दो बच्चों के माता पिता भी बन गए है।
पर श्रृति आज भी कई बार उस हादसे के बारे में सोचकर आहत हो जाती है और ईश्वर से हंमेशा प्रार्थना करती है की मेरी तरह प्रताड़ित हो रही हर लड़कियों को बचाने अचानक से किसी तरंग को भेज देना भगवान। क्यूँकि उन लड़कों की हरकतों से श्रृति सिहर उठी थी। एक अकल्पित भय से, और उस कल्पना से कि अगर तरंग नहीं आता तो? बाप रे क्या से क्या हो जाता। कितना फ़र्क होता है एक ही उम्र के लड़कों के संस्कारों में, कहाँ उन छेड़ने वालों की सोच और कहाँ तरंग की मानसिकता। काश सारे लड़के लड़कियों को माल, आइटम या उपभोग की वस्तु न समझकर एक ज़िम्मेदारी समझे और जिनको वह छेड़ रहे होते है उस लड़की की जगह अपनी बहनों को रखकर देखें तो समाज में घटती बलात्कार और छेड़खानी जैसी घटनाओं का अग्निसंस्कार हो जाए। श्रृति अपने बेटे को हर रोज़ ये पाठ पढ़ाती है की दूसरों की बहन बेटियों की इज्ज़त करनी चाहिए और कहीं पर भी लड़कियों के साथ गलत होता दिखे तो यथोचित मदद करनी चाहिए। माँ बाप अगर बेटों को बचपन से ही ये संस्कार दे तो बार-बार कही एक ही बात ज़हन में घर कर लेती है और गलत करने की सोच पर हावी होते गलती करने से रोक लेती है।
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