"समान भाव क्यूँ नहीं"

 "समान भाव क्यूँ नहीं"

भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर
भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर

आज एक तस्वीर देखी जिसमें किसी संप्रदाय के साधु एक भी कपड़ा पहने बगैर बैठे हुए प्रवचन दे रहे है। तो समाज से मेरा सवाल है कि इस हरकत पर कोई बवाल नहीं होगा, इस पर कोई आवाज़ नहीं उठेगी क्या? इसको कौनसी मानसिकता मानी जाएगी? ये मर्द है और धर्म के ठेकेदार है तो सब जायज है? 

अब तो स्त्री विमर्श पर लिखना ही बेकार है क्यूँकि महिलाओं के प्रति समाज की मानसिकता जब तक नहीं बदलेगी तब तक स्त्रियों को सहेन करना पड़ेगा। हर रिवायत, हर बंदीश, हर दायरा सिर्फ़ महिलाओं के लिए ही क्यूँ? ज़रा से मार्डन कपड़े पहन लिए या हल्का सा कोई अंग दिख गया तो न जानें क्या-क्या सुना देते है लोग। फटी जिन्स से तो सिर्फ़ पैर ही दिखते just because लड़की है इसलिए हंगामा जायज़ है? माना कि महिलाएं मर्यादा की मिसाल है, लज्जा और शर्म इनके गहने है। इनके शरीर की रचना कमनीय है इसका मतलब उसे दहलीज़ के बाहर झाँकने तक की इजाज़त नहीं क्या? 

अब ये बताईये उन मर्दों का क्या, जो हज़ारों प्रेक्षकों के सामने शर्ट उतार देता है। मर्दों की मॉडलिंग भी होती है रेंप पर उपर का हिस्सा खुल्ला रखकर लड़के आराम से चलते है, तब क्यूँ किसीकी आँखों में नहीं खटकता क्यूँकि वो लड़का है? या फिर किसी संप्रदाय के धर्म गुरु या बाबा उपर सिर्फ़ गमछा ओढ़े, या संपूर्ण निर्वस्त्र बैठकर हज़ारों लोगों को प्रवचन देने बैठ जाते है उनके आगे तो लोग साक्षात दंडवत प्रणाम करते है, तब क्यूँ उस गुरु के ख़िलाफ़ समाज आवाज़ नहीं उठाता। क्या इनको देखकर महिलाओं की मति भ्रष्ट नहीं होगी? कभी महिलाओं ने तो ऐसे निर्वस्त्र मर्दों को देखकर बलात्कार करने की कोशिश नहीं की। लड़कियाँ छोटे कपड़े पहने तो कहा जाएगा की मर्दों की नीयत खराब होती है। लड़कियों के कुछ भी करने पर ही छटपटाहट क्यूँ। गंदी मानसिकता वाले दरिंदे लड़कियों की बेइज्जती करते है, कभी आँखों से तो कभी शब्दों से, सीटी बजाकर तो कभी उठा ले जाकर अपनी मर्दानगी का प्रदर्शन करते है, और खुले सांड की तरह घूमते है कोई कुछ नहीं उखाड़ लेता ऐसे लड़कों का।

अरे महिलाओं के दमन पर भी कभी आवाज़ उठाओ रोज़ की न जानें कितनी बेटियों का शोषण होता है, बलात्कार होता है उस पर तिलमिलाहट क्यूँ नहीं होती। लड़कियों को उठा ले जाकर सेक्स वर्कर बना दी जाती है, हर रोज़ कई लड़कियों की कम उम्र में ही पैसों की ख़ातिर बड़ी उम्र के मर्दों से शादी करवा दी जाती है, महिलाओं को शराबी पतियों द्वारा पिटा जाता है, या दहेज के लिए प्रताड़ित करके जलाई जाती है। रास्तों पर, बस में, ट्रेन में, लिफ़्ट में लड़कियों को छेड़ जाता है उस मामलों में विद्रोह की एक भी लाठी क्यूँ नहीं उठती? क्यूँ आज इक्कीसवीं सदी में भी महिलाओं के लिए ही कुछ नहीं बदला? अगर सच्चे मर्द हो, समान भाव रखते हो और स्त्रियों को अपने बराबरी का दरज्जा देना चाहते हो तो जहाँ भी स्त्रियों के साथ अत्याचार या अन्याय होता दिखे उसका विरोध करो, और अपनी बहन बेटियों को आज़ादी से जीने का हक दो। 

अब तो महिलाओं को बख़्श दो, कब तक हर हरकत पर परिक्षा लेते रहोगे। आज़ादी का छोटा सा आसमान दे दो लोक तांत्रिक देश में सबको अपनी मर्ज़ी से जीने का हक है। समान भाव रखते मर्दों की गलत गतिविधियों का भी उतना ही विरोध होना चाहिए जितना महिलाओं का होता है, वरना अब स्त्रियों को भी आज़ादी की साँस लेने दो। महिलाओं की छोटी-बड़ी बात पर आलोचना करना बंद करो।

भावना ठाकर 'भावु' बेंगलोर


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