अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है| absent rahta hun par haziri lagti hai

यह व्यंग्यात्मक कविता शासकीय ऑफिस में कर्मचारी ड्यूटी पर होकर भी राउंड के बहाने कैसे घूमते फिरते, बाहरगांव जाते, ऑफिस ड्रेस में निजी काम करते हमको दिखते हैं। अब्सेंट रहते हैं परंतु फ़िर भी हाजिरी लगती है। इसपर आधारित है 

व्यंग्य कविता-अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है

शासकीय कर्मचारी हूं निजी काम बहुत रहते हैं
चालू ऑफिस में छुट्टी करता हूं सेटिंग है
मशीन में अंगूठा भी लगता है डिजिटल है
अप्सेंट रहता हूं पर हाजरी लगती है

टेबल पर जानबूझकर फाइलें फैला देता हूं
बाजू वाला बोल देता है बाबू राउंडपर हैं
रोब जमानें कहता हूं साहब की केबिन में हूं
अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है

घर के बहुत अर्जेंट काम रहते हैं
रिश्तेदारी में भी आनाजाना लगा रहता है
हम सब हमाम में वो हैं सेटिंग चलती है
अप्सेंट रहता हूं पर हाजरी लगती है

मैं अकेला नहीं सब करतेहैं सेटिंग चलती है
साहब ख़ुद भी करते हैं झूठे राउंड चलते हैं
किसी को पता नहीं चलता सब समझते हैं
अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है

सरप्राइस चेकिंग में टांग भी फंसती है
फ़िर भी धीरे से सेटिंग होती है
जनता को दिखाने बोगस केस होते हैं
अप्सेंट रहता हूं पर हाजिरी लगती है


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Kishan sanmukh

-संकलनकर्ता लेखक - कर विशेषज्ञ स्तंभकार एडवोकेट किशन सनमुखदास भावनानी गोंदिया महाराष्ट्र

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