कविता - अंधेरे की आवाज़ | Andhere ki awaz
अंधेरे की आवाज़
तालाब शांति में समुद्रीय हलचलविश्व का दूरस्थ प्रतिमान,
जो नहीं खोज पाया
खोज ही नहीं पाया
कविता और कहानियों में
आजतक
मुक्तिबोध का ब्रह्मराक्षस भी....
आहट मिल रही थोड़ी बहुत
खोह् रूपी देह में लगातार
जाने कहां ,जाने कहां...
परम अभिव्यक्ति गतागत सृष्टि
अनिवार्य ही लग रही
अब गले को पार करती
फिर भी नहीं,स्थिर कहीं...
आज का संदेह तय है
और गांधी भी नहीं हैं
अब विनोबा की नई
आंखें चमक ,मिटती नहीं..
इस तरह मैं आ रहा हूं
धंस रहा हूं तल अतल में
शांति के गह्वर भुवन में
जहां जाती सीढ़ियां
वो बाउली की गहनतर...
अब नहीं होगा 'अंधेरा'
न 'अंधेरे में' चलेंगी गोलियां
अब तो उजाला हो गया है..
मिल गया वह ज्ञान
जो खोया था उसने
बोध 'मुक्ति' का नया आख्यान
रच रहा फिर से अंधेरे की
वही सूनी डगर ...
और आगे आ न पाता
अब कोई नागार्जुन
और धूमिल क्या करें अब
जब नहीं आता अंधेरा रास्ता..
अब निरंतर पढ़ रहा है
ब्रम्हराक्षस मंत्र तंत्रम्
सब प्रमेयों के गणित की सीढ़ियां
सब ठिकानें हैं वृहत्तर
और साधन भी नए हैं
पर नहीं हो पा रहा है
साफ ,सुंदर, स्वच्छ,निर्मल
हाथ के पंजे नए, छाती नई
मंत्र थ्योरम की नहीं कोई कमी
घिस रहा है फिर वही पूरी कहानी....
अब दिखाई दे रही
आवाज़ की गहमी चमक
जो आ रही है सांप- सीढ़ी
की विवश गहराइयों से..
गले तक से निकल कर
आ गई मुंह और दांतों में
अब निकलना ही रहा है शेष
दिल में धड़कती एक सुन्दर
घूंट सी आवाज़...
About author
भास्कर दत्त शुक्ल
शोधार्थी ,
काशी हिन्दू विश्वविद्यालय वाराणसी