व्यंग्य–मैच देखने का महासुख
व्यंग्य–मैच देखने का महासुख
युधिष्ठिर मोक्ष प्राप्त करने हिमालय पर जा रहे थे, तब यक्ष ने उनसे पांच सवाल पूछे थे। उसी तरह आजकल लोग 'एक-दूसरे से' पांच 'यक्ष सवाल' पूछ रहे हैं। 'कौन खेल रहा है?' 'कितने रन हुए?' 'कितने ओवर हुए?' 'कितने विकेट गए?' 'जीतने के लिए कितना बाकी है?' इस समय आईपीएल चल रहा है, इसलिए चारों ओर किक्रेट... किक्रेट... किक्रेट ही चल रहा है। लोग 'काम छोड़कर' मैच देखने में लगे हैं, क्योंकि 'मैच देखने में महासुख' मिलता है यह सोच कर दूसरी सभी 'ऐक्टिविटी' बंद कर के टीवी के सामने बैठ गए हैं। लोगों की बातों में, विचारों में, व्यवहार में क्रिकेट छा गया है। घोटाला, भ्रष्टाचार, ठगी, महंगाई, बीमारी, दंगे, नेताओं की नालायकी सब भूल गए हैं। लाखो-करोड़ो मानवघंटे बेकार हो रहे हैं। अरबों रुपए का नुकसान हो रहा है, फिर भी 'लोग मैच देख रहे हैं बंधु।' मैचों के इस लाइव टेलीकास्ट का जादू कमाल का होता है न? लोग, आई मीन व्यूअर्स, इसमें इस तरह इनवाल्व हो गए होते हैं कि उनका 'विहेवियर' देखने-सुनने लायक होता है।कभी-कभी तो टीवी पर मैच देखने के बजाय टीवी पर मैच देख रहे 'सुज्ञ दर्शकों' को देखने में अधिक मजा आता है। नाट्यशास्त्र में जिस नव रस का उल्लेख किया गया है, वह श्रृंगार, हास्य, करुण, वीर, रौद्र, भयानक, अद्भुत, वीभत्स और शांत जैसे नवो नौ रस के दर्शन मैच देखने वाले दर्शकों के चेहरे पर देखने को मिलते हैं। मैच देखते समय (टीवी पर) लोग तरह-तरह के चित्र-विचित्र व्यवहार करते हैं।
कुछ लोग तो जैसे खुद खिलाड़ी के रूप में ग्राउंड पर मैच खेल रहे, इस तरह चिल्लाते हैं। बाल बैट से लगी नहीं है कि चिल्लाने लगते हैं, 'अरे दौड़... दौड़ बे...' 'पकड़... पकड़... कैच पकड़' 'अरे फेंक... फेंक... फें ए ए क...' 'रोक... रोक... रोक...' विकेट कीपर बगल में थ्रो कर...'. कुछ तो ग्राउंड के खिलाड़ियों से भी दोगुनी आवाज में सोफे पर बैठे-बैठे जोरजोर से अपील करते हैं। आउट है... आउट है... ऐ आउट है...' (क्रिकेट में अपील करते समय खिलाड़ी हाउ स दैट...' इस तरह की अपील करते हैं, जिसका अपभ्रंश कर के ये ज्ञानी पुरुष घर बैठे अपील करते हैं। आउट है ए ए...) और अगर उनकी अपील और ग्राउंड के खिलाड़ियों की अपील अम्पायर ठुकरा देता है तो हमारे 'ड्राइंगरूम का डाबरमैन' तुरंत गरजता है, 'अरे यह अम्पायर अंधा है क्या? इसे तो चश्मा लगा कर आना चाहिए था। एकदम साफ आउट है, फिर भी इसे दिखाई नहीं दे रहा।' कुछ लोग तो 'सेल्फ एप्वाइंटमेंट' कैप्टन बन कर प्लेयरों को सूचना देने लगते हैं, 'ए टोपा लेग साइड में क्यों नहीं डालता...' 'अबे ओ लल्लू, शार्ट कट न डाल...' 'ओय उल्लू... दूसरा फेंक...' 'बद्धू थोड़ा आगे खड़ा रह न बे..."
इसमें अगर कोई कैच छोड़ दे या रनआउट मिस करे तो इस 'घरेलू योद्धा' का दिमाग खराब हो जाता है तो कभी वह जोर से तो कभी मन ही मन मां-बहन तौलने लगता है। गुनहगार खिलाड़ी की ऐसीतैसी कर देता है।
कुछ लोग तो चालू मैच में सिलेक्शन कमेटी के चेयरमैन बन कर वहीं के वहीं किसी खिलाड़ी को टीम से बाहर करने की बातें करने लगते हैं... 'यह रोहित अब बूढ़ा हो गया है, निकालो इसे। इसकी जगह सचिन के बेटे को लो।' ऐसा तो सचिन खुद भी नहीं सोचते होंगे। और अगले मैच में रोहित शतक ठोंक दे तो वही महानुभाव कहेंगे, 'रोहित मेरा बच्चा जबरदस्त है भई। इस भाई को अभी दस साल और खेलना चाहिए।'
कुछ सेंसटिव व्यूअर्स हर मैच देखते समय उग्र आवाज में कहते रहते हैं, 'सब फिक्स है। सभी क्रिकेटर बिके हुए हैं।' कुछ लोग तो टेनिस बाल या रबर बाल से भी ठीक से क्रिकेट न खेले होंगे, फिर भी रवि शास्त्री, सुनील गावस्कर, इयान चेपल से भी ज्यादा अनुभवी हों, इस तरह 'एक्सपर्ट कमेंट' की बौछार करते रहते हैं, 'ऐसी पिच पर पहले बैटिंग लेनी ही नहीं चाहिए। देखना सौ रन के अंदर ही पूरी टीम न सिमट जाए तो कहना।' और जब वही टीम दो सौ बीस रन बना देती है तो मंद मंद मुसकराते हुए कहते हैं, 'दो सौ बीस अच्छा स्कोर है। लास्ट के दो ओवर में थोड़ा ठीक से ठोका होता तो ढ़ाई सौ पहुंचा दिया होता।' और सब से अच्छे दर्शक तो वे होते हैं, जो अपने घर दोस्तों को इकट्ठा कर के 'खाने' के साथ 'पीने' की भी व्यवस्था करते हैं। ऐसे में मैच देखने का अलग ही सुख होता है। अब आप खुद ही सोचिए कि आप इनमें से किस कैटेगरी में हैं।