आखिर क्यों नदियां बनती हैं खलनायिकाएं?

आखिर क्यों नदियां बनती हैं खलनायिकाएं?

आखिर क्यों नदियां बनती हैं खलनायिकाएं?
हाल के वर्षों में नदियों के पानी से डूबने वाले क्षेत्रों में शहरी बस्तियां बसने की रफ़्तार तेज़ हो गई है. इस कारण से भी बाढ़ से होने वाली क्षति का दायरा बढ़ रहा है. क्योंकि किसी भी शहर का भौगोलिक दायरा और आबादी बढ़ने से ज़्यादा से ज़्यादा लोगो के बाढ़ के शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है. जैसे ही बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में बस्तियां बसने लगती हैं, तो बाढ़ के पानी के निकलने का रास्ता रुक जाता है. इससे बाढ़ का पानी निकल नहीं पाता. फिर बस्तियों को बाढ़ के पानी से बचाने के लिए उनके इर्द गिर्द बंध बनाए जाते हैं. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बस्तियां बसने और इन बंधों के बनने से नदी घाटी और नदियों के इकोसिस्टम पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है.

-डॉ सत्यवान सौरभ
नदियां हमारी सभ्यता की जड़ों का अभिन्न अंग हैं, तो उनकी वजह से आने वाली बाढ़ भी हमारे देश का हिस्सा हैं. अगर हम जलीय और मौसम विज्ञान की दृष्टि से कहें तो, भारत में बाढ़ का सीधा संबंध देश में मॉनसून के सीज़न में होने वाली बारिश से है. बाढ़ के चलते होने वाला नुक़सान लगातार बढ़ रहा है. इसकी बड़ी वजह ये है कि डूब क्षेत्र में आने वाले इलाक़ों में पिछले कुछ वर्षों के दौरान आर्थिक गतिविधियां बहुत बढ़ गई हैं. और, इंसानी बस्तियां भी बस रही हैं. इससे नदियों के डूब क्षेत्र में आने वाले लोगों के बाढ़ के शिकार होने की आशंका साल दर साल बढ़ती ही जात रही है. नतीजा ये कि नदी का क़ुदरती बहाव क्षेत्र बाढ़ का शिकार इलाक़ा नज़र आने लगता है. हाल के वर्षों में नदियों के पानी से डूबने वाले क्षेत्रों में शहरी बस्तियां बसने की रफ़्तार तेज़ हो गई है. इस कारण से भी बाढ़ से होने वाली क्षति का दायरा बढ़ रहा है. क्योंकि किसी भी शहर का भौगोलिक दायरा और आबादी बढ़ने से ज़्यादा से ज़्यादा लोगो के बाढ़ के शिकार होने की आशंका बढ़ जाती है. जैसे ही बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में बस्तियां बसने लगती हैं, तो बाढ़ के पानी के निकलने का रास्ता रुक जाता है. इससे बाढ़ का पानी निकल नहीं पाता. फिर बस्तियों को बाढ़ के पानी से बचाने के लिए उनके इर्द गिर्द बंध बनाए जाते हैं. बाढ़ प्रभावित क्षेत्रों में बस्तियां बसने और इन बंधों के बनने से नदी घाटी और नदियों के इकोसिस्टम पर भी विपरीत प्रभाव पड़ता है.

पहले दौर में मनुष्य शिकारी था, फिर खेती करने लगा। इसके बाद सुदूर व्यापार करने लगा और व्यापार के नाम पर सत्ता हड़पने लगा। इसके बाद औद्योगिक युग आया और सबसे बाद में, द्वितीय विश्व युद्ध के बाद पूंजीवादी व्यवस्था उभरी। हरेक दौर में मानव पहले से अधिक विकसित होता गया और साथ ही ऊर्जा और प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग बढ़ता गया। हरेक दौर में सूचनाएं भी पिछले दौर से अधिक उपलब्ध होने लगीं। हरेक नए दौर में जनसंख्या भी पहले से अधिक बढ़ती गयी। यहां तक प्रकृति हमसे अधिक शक्तिशाली थी, पर वर्त्तमान दौर विकास की अगली सीढ़ी है, इसे मानव युग कह सकते हैं क्योकि अब प्रकृति पर पूरा नियंत्रण मनुष्य का है और मानवीय गतिविधियां प्रकृति से अधिक सशक्त हो गयी हैं। हर डूब क्षेत्र से लोगों को हटाने और तय दिशा-निर्देशों के अनुसार उन्हें कहीं और बसाने की चुनौती बहुत बड़ी है. और इसकी शुरुआत से ही बाधाएं आने लगती हैं. आज भी ज़मीन अधिग्रहण करना एक बहुत बड़ी चुनौती है. और सरकारों पर अक्सर ये आरोप लगते रहे हैं कि वो मुआवज़ा देने में निष्पक्षता नहीं बरतते और लोगों के पुनर्वास की सरकारी योजनाएं अपर्याप्त होती हैं. इसीलिए, यथास्थिति बनाए रखने के राजनीतिक लाभ अधिक हैं. क्योंकि इसमें हर सीज़न में बाढ़ पीड़ितों को राहत और मुआवज़ा देकर काम चल जाता है. इसीलिए राज्यों की ओर से दूसरे विकल्पों पर विचार नहीं किया जाता.

क्योंकि, इससे उनके राजनीतिक हितों पर बुरा प्रभाव पड़ता है. इसके अलावा, यहां ध्यान देने वाली बात ये भी है कि शहरी घनी बस्तियों को पूरी तरह से विस्थापित नहीं किया जा सकता. और इसके लिए इन बस्तियों के इर्द गिर्द बांध बनाकर उनकी सुरक्षा का इंतज़ाम करना भी ज़रूरी होता है. पर, इसके साथ ही साथ ये ज़रूर हो सकता है कि शहरों के बुनियादी ढांचे का और विकास रोका जाए. ताकि बाढ़ प्रभावित इलाक़ों में और बस्तियां न बसें. यहां पर एक और महत्वपूर्ण बात जो ध्यान देने योग्य है, वो ये है कि डूब क्षेत्र की ज़ोनिंग का लाभ आबादी के एक बड़े हिस्से और क्षेत्र को मिलेगा. मिसाल के तौर पर, अगर असम राज्य में डूब क्षेत्र को दोबारा संरक्षित किया जाए और ब्रह्मपुत्र नदी के प्राकृतिक बहाव के रास्ते को पुनर्जीवित किया जाए, तो इसका फ़ायदा बांग्लादेश तक को मिलेगा. क्योंकि तब बारिश होने और बाढ़ का पानी बांग्लादेश के निचले इलाक़ों तक पहुंचने के बीच काफ़ी समय मिल जाएगा. इससे नदियों में लंबे समय तक पानी का अच्छा स्तर भी बना रह सकेगा.यहां हमें ये स्वीकार करना होगा कि नदियां इस भूक्षेत्र का अभिन्न अंग हैं. ऐसे में इंसानों को अपनी गतिविधियां प्राकृतिक परिस्थितियों द्वारा तय की गई सीमाओं के दायरे में रहकर ही संचालित करनी होंगी. प्राचीन काल में जिस तरह मानवीय गतिविधियों को प्राकृतिक व्यवस्था के तालमेल से संचालित किया जाता था. उसी विचार को हमें नए सिरे से अपनाने के बारे में सोचना होगा. तभी हम इस महत्वपूर्ण नीति को ज़मीनी स्तर पर लागू कर सकेंगे, जो बरसों से धूल फांक रही है.

कुल मिलाकर हम बहुत ही खतरनाक दौर में पहुंच गए हैं और संभव है कि मानव की गतिविधियां ही इसके विनाश का कारण बन जाएं। आज के दौर में समस्या केवल प्राकृतिक संसाधनों को नष्ट करने की ही नहीं हैं, बल्कि हम सभी चीजों को बदलते जा रहे हैं। वायुमंडल को बदल दिया, भूमि की संरचना को बदल दिया, साधारण फसलों से जेनेटिकली मॉडिफाइड फसलों पर पहुंच गए, नए जानवर बनाने लगे, जीन के स्तर तक जीवन से छेड़छाड़ कर रहे हैं। अब तो कृत्रिम बुद्धि का ज़माना आ गया है। संभव है कि आने वाले समय में पृथ्वी पर सब कुछ बदल जाए, पर प्रकृति पर इनका क्या प्रभाव पड़ेगा कोई नहीं जानता।
इन चुनौतियों के उलट अगर हम नदियों के क़ुदरती बहाव के रास्ते तैयार करने की कोशिश करें, तो इसमें भी बाढ़ नियंत्रण की काफ़ी संभावनाएं दिखती हैं. इससे बाढ़ से होने वाली क्षति को भी कम किया जा सकेगा. जिन इलाक़ों में अक्सर बाढ़ आया करती है, वहां ज़मीन के दाम ज़्यादा नहीं होते. इसीलिए, समाज के सबसे कमज़ोर तबक़े के लोग ही ऐसे जोखिम भरे इलाक़ों में आबाद होते हैं. जो अपनी ज़िंदगी बेहद ख़तरनाक जगह पर बिताते हैं. उन्हें सरकारी योजनाओं और सेवाओं का भी लाभ नहीं मिलता. ऐसे लोगों को अगर दूसरे स्थानों पर बसाया जाए, तो उनके पास ख़ुद को ग़रीबी के विषैले दुष्चक्र से आज़ाद करने का अवसर मिलेगा. वो हर साल आने वाली बाढ़ की तबाही से बच सकेंगे. इससे उनके सीमित पूंजीगत संसाधनों का भी संरक्षण हो सकेगा.

About author

डॉo सत्यवान 'सौरभ'
कवि,स्वतंत्र पत्रकार एवं स्तंभकार, आकाशवाणी एवं टीवी पेनालिस्ट,
333, परी वाटिका, कौशल्या भवन, बड़वा (सिवानी) भिवानी, हरियाणा – 127045
facebook - https://www.facebook.com/saty.verma333
twitter- https://twitter.com/SatyawanSaurabh
Next Post Previous Post
No Comment
Add Comment
comment url