कविता –मंदिर में शिव जी
मंदिर में शिव जी
पर आस्तिक जरूर हूँ
हालात बयां करूँ
या शिकायत
मुझे बेल पत्तों की हरियाली में
भांग की रंगत,
धतूरे की सुगंध
और जल के ऊपरी लिबास पर
राखी की चमक घिसटती नज़र आ रही है
बावजूद इसके
हम सभी सावन में
प्रत्येक सोमवार को
महादेव की वंदना करते हैं
'बिना किसी इच्छा और संपूर्ण विश्वास के'?
मित्रों!
हमारी कामना
यदि प्रतिफलित होती....
झूठे रचाये स्वांग के गंदे इरादों में
तभी हम भावना का भावना से
वरण करते हैं...
सहज प्रति उत्तर की प्रतीक्षा में
दृढ़ विश्वस्त मन की आत्मा में
उन्हीं औघड़ सरीखे आत्मदानी
चेतना के स्वर
मंदिर के मठों में राजते शिव जी
भयंकर रूप की शिवलिंग
लिपटते जा रहे शिवनाथ
अकेले ही अकेले दूध के
विषधर -विषैले सर्प की माला
तभी इस लोक की लोकल धरा पर
हर एक प्राणी
पा रहा सम्मान
आशीर्वाद की खातिर
मनाते रोज शिव जी को
विनत हो नम- नमन कर
शीघ्राति इस पावन घड़ी में
दे रहा दस्तक कि
'सावन' आज आया है
पुकारो अब कि शंकर नाम
या अविलंब
दुख की चीख सुनकर
चौंकने वाले ..... महादेव!