sabhya samaj ki darkar by jitendra kabir
सभ्य समाज की दरकार
"हमें क्या लेना दूसरों के
मामलों में पड़कर"
ऐसा सोचकर
जब जब हमनें देख कर अनदेखा किया
किसी मजलूम पर होता अत्याचार,
तब तब उस कृत्य को बढ़ावा देने में
हम भी हुए परोक्ष रूप से जिम्मेदार,
हम मानें या न मानें
हर बात का हल नहीं है सरकार,
एक सभ्य एवं जागरुक समाज के तौर पर भी
अभी हमें काफी करना है सुधार।
"हम क्या करें अगर उसने
संपत्तियां बना लीं रिश्वतें खाकर"
ऐसा सोचकर
जब जब हमनें देख कर अनदेखा किया
अपने आस-पास पलता भ्रष्टाचार,
तब तब उस बुराई को बढ़ावा देने में
हम भी हुए परोक्ष रूप से जिम्मेदार,
हम मानें या न मानें
हर जगह नहीं पहुंच सकती सरकार,
खात्मा करने के लिए इस बुराई का जड़ से
जनता को ही करना होगा आखिरी प्रहार।
"हम क्या करें किस्मत में ही बदी होगी
उसके मुसीबत तो रहेगी होकर"
ऐसा सोचकर
जब जब हमनें सहायता के लिए किया
किसी बड़े जरूरतमंद इंसान को इनकार,
तब तब समस्या को बढ़ावा देने में
हम भी हुए परोक्ष रूप से जिम्मेदार,
हम मानें या न मानें
हर दुःख दूर नहीं कर सकती सरकार,
एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आने को
हमें ही रहना पड़ेगा स्वेच्छा से तैयार।
जितेन्द्र 'कबीर'
यह कविता सर्वथा मौलिक अप्रकाशित एवं स्वरचित है।
साहित्यिक नाम - जितेन्द्र 'कबीर'
संप्रति - अध्यापक
पता - जितेन्द्र कुमार गांव नगोड़ी डाक घर साच तहसील व जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश
संपर्क सूत्र - 7018558314