Budhati aakho ki aash by jitendra kabir
बुढ़ाती आंखों की आस
लाखों - करोड़ों रुपयों की
लागत में बनी
आलीशान कोठी में,
बीतते समय के साथ बुढ़ाती
धुंधलाती हुई सी
दो जोड़ी आंखें,
राह देखती हैं वर्ष भर
दो जोड़ी वयस्क और दो जोड़ी
नन्हें पांवों की,
वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिनों के
आठ हजार सात सौ पैंसठ घण्टों के
पांच लाख पच्चीस हजार छ: सौ मिनटों के
तीन करोड़ पंद्रह लाख छत्तीस हजार सेकंड का
बेहद लम्बा व सूनेपन से भरा उनका इंतजार,
उन पांच - दस दिनों के लिए
खूब बरसता है
अपनी भावी पीढ़ियों के ऊपर
बनकर प्यार और दुलार।
बाकी का पूरा समय
वो दो जोड़ी आंखें
अपने बेटे को पढ़ाने-लिखाने में की गई
मेहनत को करती हैं बड़ी शिद्दत से याद,
उसके द्वारा हासिल की गई सफलता को
मानती हैं अपनी मेहनत का प्रसाद,
लेकिन फिर भी यह शानदार कोठी,
रुपया-पैसा, सामाजिक रुतबा रोक नहीं पाता
उम्र के इस मोड़ पर
उन दोनों को होने से लाचार और उदास,
हताशा में कई बार सोचते हैं वो
कितना अच्छा होता कि बेटा उनका
उनके पास ही रहकर करता
कोई छोटा-मोटा कारोबार
तो कम से कम उनके लिए थोड़ा
वक्त होता उसके पास और
अपने पोते-पोती के साथ समय बिताकर
उन दोनों में भी
जिंदा रहती जिंदगी जीने की आस।
जितेन्द्र 'कबीर'
यह कविता सर्वथा मौलिक अप्रकाशित एवं स्वरचित है।
साहित्यिक नाम - जितेन्द्र 'कबीर'
संप्रति - अध्यापक
पता - जितेन्द्र कुमार गांव नगोड़ी डाक घर साच तहसील व जिला चम्बा हिमाचल प्रदेश
संपर्क सूत्र - 7018558314