Corona Kal ek dard kavita by vijay Lakshmi Pandey
August 04, 2021 ・0 comments ・Topic: poem
कोरोना काल ...एक दर्द ..!!!
दिन सहम गया ।
दिन सहम गया ।।
वह दबे पाँव भीतर जाकर ,
सांकल देकर दुबक गया ।
दिन सहम गया ,
दिन सहम गया ।।
हमनें बचपन को कैसा देखा ?
सुबह -शाम हंसता देखा ।
अबके बचपन की देख कहानी ,
मुँह बंधा😷पाँव ठिठका देखा ।।
घर के कोनें में ठहर 🤒 गया ।
दिन सहम गया ,
दिन सहम गया ।।
बच्चों का बचपन ले डूबा ,
बूढ़ों की महफ़िल ले डूबा।
लूट गई तरुण की रंगत तो ,
हैरान हुई है संगत तो ।
पंगत की रंगत, बदल गया ।
दिन सहम गया
दिन सहम गया ।।
कितनीं बार तलैया सूखी ,
कितनीं बार गगरिया फूटी ।
कितनें सूखे कुएं बावड़ी ,
अबके क्यों दिन सहम गया..??
दिन सहम गया ।
दिन सहम गया ।।
उनके बिन दिन सहम गया ,
जिनके परिजन छोड़ चले ।
उनके बिन दिन सहम गया ,
जिनके अपनें अनजान हुए ।।
भूले -बिसरे अपनों के बिन ,
दिन सहम गया ,
दिन सहम गया।।
विजय लक्ष्मी पांडेय
एम. ए. बी.एड.(हिन्दी)
स्वरचित मौलिक रचना
विधा संस्मरण
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