"मन की बात"
मन की बातें मन में ही रखती है नारी।
बाहर निकल शब्द भूचाल बचाये।
कब सोचा था नारी ने ऐसा....
बंधकर निज स्वतंत्रता खो देगी?
परिवार की बेड़ी में बंधकर.रोज रोज मरती है।
निज अश्रु के घूँट पीकर भी तो वह हंसती है।
सबकी ख्वाहिश पूरी करते स्वयं अधूरी रहती है।
कब तक समाज जागृत होगा?
कब जीवन जिये निजता का?
कौन समझता उसकी खुशियों को?
कौन नारी के मन को समझेगा?
बड़े-छोटो को समर्पित उसका जीवन।
मोम सी नित्य पिघल रही है नारी।
नित्य भीतर जल रही धधकती।
बाहर से मुस्कुरा जीती है।
नारी को समझेगा कब संसार?
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