सीखा है ज़िन्दगी से- जयश्री बिरमी

 सीखा हैं जिंदगी से

Seekha hai zindagi se by jay shree birmi
पैदा होते ही तूने सिखाया हैं रोना ए जिंदगी
जब देखा कुछ सिखाया हैं ए जिंदगी

कुछ अच्छा तो कुछ सिखाया हैं जिंदगी
घर में हो या बाहर सब से करना सिखाया समझौता ए जिंदगी

फिर नसीब में क्या हैं तू भी जाने हैं ए जिंदगी
मुझे तो मिली बेचारगी

और मायूसी ही ए जिंदगी
कल का तो पता नहीं किंतु

आज की ही बात हैं
न दिखाई समझदारी तो

वह नादानी ही तो हैं ए जिंदगी
छोड़ स्वाभिमान रुकी रही

मजबूरियों में
न ही लब्ज़ थे कुछ बोलने के लिए

अगर बोलती भी तो तोल तोल कर
सभी का मान रखने के लिए

बलि चढ़ा दिया स्वमान ए जिंदगी
सोचा था एकदिन लगेंगे पंख मुझे

कुतरे गए मेरी ही इजाजत से ए जिंदगी
न जुल्म हुआ न ही हुई शिकायत

मुद्दते निकल गई बिना लिए इजाजत ए जिंदगी
न ही किसी ने सहारा दिया और न ही थामा हाथ

रेत सा फिसला समा और फिसले जज्बात ए जिंदगी
गुजरते गए लम्हे बिना इजाजत ए जिंदगी

कोई छोड़ी ही नहीं मीठी सी परछाई ए जिंदगी
डराते रहे साए पुराने और

नए भी हो गए तैयार ए जिंदगी
जिक्र न करते अभी अगर किया होता सामना

कुछ तो देना था कटु आयुध मुझे भी ए जिंदगी
वार न सही प्रतिकार तो हो जाता ही

नहीं छूटते गहरे निशान आंसुओं के ए जिंदगी
लकीरें न होती गहरी जेहन पर
नहीं डरता भविष्य पुराने जख्मों को देख कर ए जिंदगी

जयश्री बिरमी
अहमदाबाद

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