आहत - सुधीर श्रीवास्तव
आहत
कितना आसान है
किसी को आहत करना,
जले पर नमक छिड़कना ।
पर जरा सोचिए
कोई आपको यूँ आहत करेगा
तब कैसा लगेगा?
मगर हम सब आदत से लाचार हैं,
अपने क्षणिक मनोरंजन, खुशहाली
या उदंडतावश ऐसा जब तब करते ही हैं,
सामने वाले की पीड़ा बढ़ाते हैं
उसकी बेबसी का मजाक बनाते हैं,
औरों की नजरों में भी उसे
हँसी का पात्र बनाते हैं,
अपने को बड़ा होशियार समझते हैं।
मगर जब ऐसा हमारे साथ होता है
तब हम किंकर्तव्यविमूढ़ से
होकर रह जाते हैं,
आहत होने का दर्द वास्तव में
तब ही समझ पाते हैं,
लोगों की मानसिकता पर
सवाल उठाते हैं,
समझ पर ऊँगलियाँ उठाते हैं,
आहत होने और करने का फर्क
महसूस कर पाते हैं।