Kaise puri ho ummiden hamari by Jitendra Kabir
कैसे पूरी हों उम्मीदें हमारी?
हमारे देश की जनता
चुनावों के समय नहीं देखती
कि...
उम्मीदवार पढ़ा लिखा है
या है कोई अनपढ़,
ईमानदार है अपने काम में
या फिर है कोई भ्रष्टाचारी,
झूठे आश्वासन देकर
मूर्ख बनाता रहता है सबको
या फिर अपने वचनों के प्रति
उसके मन में है वफादारी,
शरीफ सभ्य नागरिक है
या फिर है कोई ठग, बेइमान
अपराधी अथवा दुराचारी,
प्रशासनिक योग्यता रखता है
या फिर है उसमें सिर्फ
झूठी लफ्फाजी की कलाकारी,
समाज के सर्वांगीण विकास का
'विजन' है उसके पास कोई
या फिर साम-दाम-दंड-भेद से
सत्ता में आने की है उसमें बेकरारी,
सत्ता एवं सुविधाओं की चाह में
राजनीति करने उतरा है
या फिर वास्तव में जनसेवा की
है उसमें चिंगारी,
हमारे देश की जनता
चुनावों के समय देखती है
कि...
अपने धर्म या फिर जाति से
कौन खड़ा है धनुर्धारी,
भ्रष्ट होकर उनका निजी स्वार्थ
कौन पूरा कर सकता है
या फिर किसे है सच-झूठ बोलकर
लोगों को बहलाने की बीमारी,
बहुत से ऐसे हैं 'कैडर वोट'
कि बाप दादा के समय से ही
निभा रहे दल विशेष की वफादारी,
काला कुत्ता भी उस दल से
हो जाए खड़ा चुनाव में
तो वो उसकी भी करेंगे फरमाबरदारी,
चुनावों के समय जब देश के लोगों की
बुनियादी जरूरतें व समस्याएं
बनती ही नहीं चर्चा का केंद्र हमारी,
अच्छे प्रशासन, संवेदनशील कानून,
निष्पक्ष एवं त्वरित न्याय,
सांप्रदायिक सौहार्द की कसौटी पर
जब हम कसते ही नहीं
किसी उम्मीदवार की उम्मीदवारी,
तो फिर आश्चर्य नहीं कि हारती रहें
देश में बेहतरी की उम्मीदें हमारी।