पश्चाताप की अग्नि सुधीर श्रीवास्तव-
December 15, 2021 ・0 comments ・Topic: poem
पश्चाताप की अग्नि
स्तब्ध रह गया धरा गगन
मौन हो गये जन के बोल,निष्ठुर ईश्वर तूने खेला
क्यों ऐसा अनचाहा खेल।
माना तू करता रहता है
ऐसे निष्ठुर अनगिन खेल,
तू भी तो हैरान हुआ होगा
किया क्यों मैंनें ऐसा खेल।
निश्चय ही तेरे मन में भी
आज हुआ होगा पश्चाताप
व्यथित हृदय से सोच रहा होगा
अब न करुंगा ऐसे खेल।
पश्चाताप की अग्नि में तू
आज स्वयं में जलता होगा,
ऐसा खेल किया क्यों मैंने
खुद को धिक्कार रहा होगा।
आखिर मैंनें क्या कर डाला
तू भी यही सोचता होगा,
पश्चाताप के आँसू का प्याला
तू भी आज पी रहा होगा।
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