बेटी का बाप- लघुकथा

बेटी का बाप

बेटी का बाप- लघुकथा
" पता है‌, लोग हमारे बारे में कैसी - कैसी बातें कर रहें हैं । कहते हैं । हमने रूबी को अच्छे संस्कार नहीं दिये । नहीं तो वो इस तरह हमारी नाक कटवाकर उस‌ निगोड़े बलवंत के साथ नहीं भागी होती । अभी रूपलाल की दुसरी बीबी सुनीतवा मिल गई थी । कह रही थी । आजकल तो हर घर की यही कहानी हो गई है बहन । चूजों के पर निकले नहीं की इश्क करने निकल जाते हैं । मुझे तो उसके हँसने पर बड़ा गुस्सा आ रहा था ।
इस तरह हँस -हंँस कर बातें कर रही थी । जैसे रूबिया के भागने से उसे बेइंतहा खुशी हई हो । " सु‌लोचना
देवी अपनी औलाद रुबी को कोस रहीं थीं ।
मकरंद बाबू भी पड़ोस की छत पर बैठे हुए अखबार पढ़ रहे थें । अखबार को तह करके एक ओर रखा । और अपनी ऐनक साफ करते हुए बोले - " ये कोई नई बात नहीं है । ऐसी घटनाएंँ समाज में अक्सर होती रहती हैं । लेकिन खराब बात ये है । कि हम किसी की बेटी - बहू के भाग जाने पर खुश होते हैं। उसकी चर्चा लोगों से रस- ले लेकर करते हैं। मानों हम उनके हित चिंतक नहीं हैं । सबसे बड़े शत्रु हैं । कभी - कभी हम अनजाने में भी ऐसा करतें हैं । लेकिन कभी- कभी हम जानबूझकर ऐसा करते हैं । हमारे सबसे बड़े शत्रु हमारे ये आस- पड़ोस के लोग होते हैं । जो मौका देखकर अपनी कुंठा निकालते हैं । समाज के सबसे बड़े दुश्मन यही हैं।
"
गणेशी बगल‌ में खड़ा ईंटों को छत पर सजा रहा था । वो गोपी बाबू और सुलोचना देवी से बोला - " साहेब छोटी
मुँह और बड़ी बात ।‌ एक बात कहना चाहता हूँ । पहले
हम रामकृपाल बाबू के यहाँ काम करते थें । उनके मुख से ही सुनाता रहा था । कि संतान से हमें यश‌ और अपयश दोनों मिलता है। जिसके भाग में जो बदा होता है । वो उसे मिलता है । ये तो भाग- भाग की बात है। "
शायद गणेशी सही कह रहा था । कि ये तो भाग्य- भाग्य की बात है । नहीं तो रूबी बिना बताये बलवंत के साथ क्यों भाग जाती ?
जमाने भर का दु:ख जैसे ‌गोपी बाबू के चेहरे पर नुमायाँ हो गया था । और वो चाय की प्याली को धीरे - धीरे पीने लगे । मानों वो अपना ही दु:ख पी रहे हों ।

सर्वाधिकार सुरक्षित
महेश कुमार केशरी
मेघदूत मार्केट फुसरो
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