परिंदे की जात-लघुकथा

लघुकथा
परिंदे की जात

परिंदे की जात-लघुकथा
लाल्टू ने घर को आखरी बार निहारा l घर जैसे उसके सीने में किसी कील की तरह धँस गया था l उसने बहुत कोशिश की लेकिन, कील टस से मस ना हुआ l उसने सामने खुले मैदान में नजर दौड़ाई l सामने बड़े -बड़े पहाड़ खूब सूरत वादियाँ l कौन इस जन्नत को छोड़ कर जाने की बात भी सोचता है l लेकिन वो अपने बूढ़े बाप और अपने बच्चों का चेहरा याद करता है l तो ये घाटी अब उसे मुर्दों का टीला ही जान पड़ती है l इधर घाटी में जबसे मजदूरों पर हमले बढ़ें हैं l उसके पिताजी और उसके बच्चों का हमेशा फोन आता रहता है l कि कहीं कुछ... l उसके बूढ़े पिता कोई बुरी घटना घाटी के बारे में सुनतें नहीं कि उसका मोबाइल घनघना उठता है l चिंता की लकीरें लाल्टू के चेहरे पर और घनी हो जातीं हैं l
बूढ़ा असगर जाने कबसे आकर लाल्टू के बगल में खड़ा हो गया था l उसकी नजर अचानक बूढ़े असगर पर पड़ी l
लाल्टू झेंपता हुआ बोला - " अरे चचा आईये बैठिये..l "
" तुमने, तो जाने का इरादा कर ही लिया है l तो मैं क्या कहूँ..? लो यह पश्मीना साल है.. l रास्ते में ठंँढ़ लगेगी तो ओढ़ लेना l " असगर चचा ने तह किये हुए साल को पन्नी से निकाला और लाल्टू के कंँधे पर डाल दिया l
इस अपनत्व की गर्मी के रेशे ने एक बार फिर, से लाल्टू की आँखें नम कर दीं l
असगर चचा ने धीरे - से उसके कँधे दबाये l और हाथ से उसके कँधे को बहुत देर तक सहलाते रहें l
असगर चचा को कहीं ये एहसास हुआ कि ज्यादा देर तक वो इस तरह रहें l तो उनकी भी आँखें भीगनें लगेंगी l
उन्होनें विषयांतर किया , और बोले- " चाय पियोगे.. ? "
लाल्टू ने हाँ में सिर हिलाया l
बूढ़े असगर ने नदीम को आवाज़ लगाई - " नदीम जरा दो कप चाय दे जाना l थोड़ी देर में नदीम दो प्यालों में गर्मा- गर्म चाय लेकर आ गया l "
चाय पीते हुए बूढ़ा असगर बोला - " ठीक, है अब तुम भी क्या कर सकते हो ? जब यहाँ लोग ड़र के साये में जीने को मजबूर हैं l वहाँ तुम्हारे वालिद और बच्चे परेशान हैं l यहाँ क्या है ? फुचके अब ना बिकेंगे l तो चाय बेचने लगूँगा l आखिर कहीं भी रहकर कमाया - खाया जा सकता है l तुम जहाँ रहो खुश रहो l अपने वालिद और अपने बच्चों को देखो l जमाना बहुत खराब आ गया l पहले लोग इंसानियत और कौम के लिए जान दे देतें थें l लेकिन, अब इन नालायकों को जेहाद और आतंकवाद के अलावे कुछ नहीं सूझता l जेहाद बुराई को खत्म करने के लिए किया जाता है l बुरा बनने के लिए नहीं l इस्लाम में कहीं नहीं लिखा है l कि बेगुनाहों, और मजलूमों को कत्ल करो l ये सब वही लड़कें हैं l जिन्हें धर्म के नाम पर उकसाया जाता है l और सीमापार बैठे हुक्मरान इनसे खेलतें हैं l "
बहुत देर से चुप बैठा नदीम भी आखिरकार चुप ना रह सका l बोला - " तमिलनाडु में एक कंपनी ने तो एक ऐसा विज्ञापन निकाला है l जिसमें लिखा है कि वो नौकरियाँ केवल हिंदुओं को देगा l मुसलमानों को नहीं !
आखिर जो हो रहा है l एकतरफा तो नहीं हो रहा है ना l "
अचानक से चचा के शब्दों में अफसोस उतर आया l वो नदीम को घूरते हुए बोले - " आज सालों पहले लाल्टू यहाँ आया था l और पता नहीं कितने मजदूर यहाँ काम की तलाश में आयें होंगे l ये देश जैसे तुम्हारा है वैसे लाल्टू का भी है l कोई भी कहीं भी देश के किसी भी हिस्से में जाकर मजदूरी कर सकता है l कमाने- खाने का हक सबको है l लाल्टू आज भी मुझे अपने वालिद की तरह ही मानता है l गोलगप्पे मैं बेलता हूँ l छानता वो है l रेंड़ी मैं लगता हूँ l रेंड़ी धकेलता वो है l मैंने कभी तुममें और लाल्टू में अंतर नहीं किया l बेचारा हर महीने जो कमाता है l अपने घर भेज देता है l साल - छह महीने में वो कभी घर जाता है l तो अपने बूढ़े बाप और बाल बच्चों से मिलने l मेरा खुदा गवाह है l कि मैंने कभी इसे दूसरी किसी नजर से देखा हो l इस ढंँग की हरकतें सियासदाँ करें l उनको शोभा देता होगा l हम तो इंसान हैं ऐसी गंदी हरकतें हमें शोभा नहीं देतीं ! हम तो मिट्टी के लोग हैं l और हमारी जरूरतें रोटी पर आकर सिमट जाती है l रोटी के आगे हम सोच ही नहीं पाते l हिंदू - मुसलमान भरे- पेट वालों लोगों के लिए होता है l खाली पेट वाले रोटी के पीछे दौड़ते हुए अपनी उम्र गँवा देतें हैं l इसलिए नदीम दुनियाँ में आये हो तो हमेशा नेकी करने की सोच रखो l बदी से कुछ नहीं मिलता बेटा l बेकार की अफवाहों पर ध्यान मत दो बेटा l इस तरह की अफवाहों पर कान देने से अपना ही नुकसान है , नदीम l ऐसी अफवाहें घरों में रौशनी नहीं करतीं l ना ही शाँति के लिये कँदीलें जलातीं हैं l बल्कि पूरे घर को आग लगा देतीं हैं l मै उन नौजवानों से भी कहना चाहता हूँ l जो इस तरह के कत्लो- गारत में यकीन रखतें हैं l बेटा उनका कुछ नहीं जायेगा l लेकिन तबतक हमारा सबकुछ जल जायेगा ! "
बाहर की खिली हुई धूप में कुछ कबूतर उतर आयें थें l बूढ़ा असगर गेंहूँ के कुछ दाने कोठरी से निकाल लाया l और, उनकी तरफ फेंकनें लगा l ढ़ेर सारे कबूतर वहाँ दाना चुगने लगें l
बूढ़ा असगर, उनकी ओर ऊँगली दिखाते हुए लाल्टू और नदीम से बोला - " देखो ये हमसे बहुत बेहतर हैं l अलग- अलग रंँगों के होने के बावजूद ये एक साथ बैठकर दाना चुग रहें हैं l ये बहुत बुद्धि मान नहीं हैं l फिर, भी ये आपस में कभी नहीं लड़तें l लेकिन, आदमी इतना बुद्धि मान होने के बावजूद भी जातियों और मजहबों में बँटा हुआ है l इन कबूतरों से आदमी को बहुत सीखने की जरूरत है l "
लाल्टू ने नजर दौड़ाई दोपहर धीरे- धीरे सुरमई शाम में तब्दील होने लगी थी l उसने एक बार रेंड़ी को छुआ l फिर, उन बर्तनों पर सरसरी निगाह दौड़ाई l बिस्तर को निहारा l ये सब वो आखिरी बार निहारा रहा था l पिछले दस- बारह सालों से वो कश्मीर के इस हिस्से में रेंड़ी लगाता आ रहा था l सब छूटा जा रहा था ..!
उसकी बस किनारे आकर लगी l लाल्टू चलने को हुआ l
बूढ़ा असगर दौड़कर बस तक आया l उसने लाल्टू को सीने से लगा लिया l लाल्टू और बूढ़ा दोनों रोने लगे l
बूढ़ा असगर बोला - " अपना ख्याल रखना ! कभी हमारी याद आये l और हालात ठीक हो जायें तो चले आना l "
" आप भी.. अपना ख्याल रखना.. बाबा..! " झेंपता हुए वो बस की सीट पर बैठ गया l उसने बैग से पश्मीना शाॅल निकाला और ओढ़ लिया l सुरमई शाम धीरे - धीरे रात में बदल गई l

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महेश कुमार केशरी
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