नारी की समाज में नारायणी भूमिका
अबला के ठप्पे को हटाते हुए आज की नारी नर के साथ अग्रिम पंक्ति में शान से बराबरी करने में हिचकिचाहट नहीं दिखाती। आज की नारी शारीरिक कमजोरियों का बहाना नहीं बनाती।
नारी को नारायणी यूँ ही नहीं कहा जाता। जन्म से लेकर मृत्यु तक के विविध आयामों को विभिन्न रुपों में निर्वहन करना हंसी खेल नहीं है। बेटी होने और मायके की दहलीज को पारकर ससुराल की चौखट के भीतर जाकर अनदेखे, अंजाने लोगों के बीच खुद को तिल तिल होम की भाँति आहुति बन जाना देना, बहुतेरे रिश्तों में सामंजस्य बिठाने के अलावा घर को व्यवस्थित करते हुए घर चलाने का फार्मूला आज भी किसी पहेली से कम नहीं है।
नारी की पूजा भी होती है और नारी ही पूजती भी है।ये अधिकार या गौरव नर पा ही नहीं सकता।शायद इसी लिए नारी को नारायणी की संज्ञा भी दी जाती है।आश्चर्य यह भी कि नारी को समझ पाना भी नारायण के भी वश में नहीं है।नारी सबकुछ करते हूए भी किसी अबूझ पहेली जैसी है।
आज नारी की भूमिका समाज में रेखांकित करना भी किसी भी.दृष्टिकोण से आसान नहीं है। आदिकाल से लेकर आज तक नारियों की समाज में भूमिका प्रभावी ही होती रही है। नारी की समाज, राष्ट्र ही नहीं परिवार में जो भूमिका है, वह सराहनीय होने के अलावा बड़ी लकीर ही बन रही है।
अब इसे विडंबना ही कहा जायेगा कि जब परिवार के साथ साथ नारी हर क्षेत्र में खुद को स्थापित कर अपने को सिद्ध कर रही है तब भी पुरुषों की मानसिकता में वह बदलाव नहीं दिखता जो दिखना चाहिए। कुछेक सभ्य पुरुषों की मानसिकता आज भी कुंठित है और वे किसी भी हद तक जाकर भी समाज में उनके योगदान को नकार ही नहीं रहे हैं,बल्कि उन्हें अबला, असहाय और बेचारी होने की गला फाड़कर दुहाई ही देते घूम रहे हैं।
अंत में सिर्फ इतना ही कह सकता हूं कि नारी की समाज में बढ़ती और स्थापित हो रही बहुआयामी भूमिका पुरुषों से अधिक प्रभावी सिद्ध होने की ओर अग्रसर है। शायद नारी के नारायणी होने का यही विलक्षणता उन्हें विशिष्ट बनाने की ओर अग्रसर है।
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