काट दिए मेरी कलम के पर

 काट दिए मेरी कलम के पर

काट दिए मेरी कलम के पर
तमन्ना थी कभी खुद को , मैं खूब संवारूंगी
सौलह श्रंगार करके , मैं खुद कि ही नज़र उतारूंगी।।

आया वो वक्त जब तमन्नाओं को पूरा हमें करना था
मुझे क्या पता था , तमन्नाओं को मैं सीने में ही दबाऊंगी।।

कहते हैं , तुम्हारा दायरा सिर्फ घर कि ये चार दीवारी है
सोचती हूं , जमाने से क्या अब मैं न कभी मिल पाऊंगी।।

कब तलक खुद कि तमन्नाओं का दम़ मैं घोंटू
कब तलक , शब्दों को सजा मैं खुद को मरहम लगाऊंगी।।

उड़ना चाहती , कलम के पर लगा मैं खुले आसमां में
काट दिये मेरी कलम के पर , क्या मैं अब उड़ ना पाऊंगी

हो रही वीणा की झंकार भी अब कुछ मधम-मधम
वीणा कि झंकार के सुर , लगता है अब मैं खो ही जाऊंगी।।

वीना आडवाणी तन्वी
नागपुर, महाराष्ट्र
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