कविता - ख्वाब - सिद्धार्थ गोरखपुरी

 कविता - ख्वाब 

सिद्धार्थ गोरखपुरी

ये ख्वाब न होते तो क्या होता?

झोपड़ी में रहने वाले लोग

जब थोड़े व्यथित हो जाते है

वक़्त अपना भी बदलेगा

जब ये खुद को समझाते हैं

फिर रात की नींद में वे झट से

अपने ख्वाबों में जाते हैं

ख्वाब में मस्त मगन होकर

एक सपनों का घर बनाते है

वक़्त उनका अच्छा होता 

 तो उनका घर भी नया होता

ये ख्वाब न होते तो क्या होता?

हकीकत में टूटी साईकिल है

पर ख्वाबों में कार से चलते हैं

ये ख्वाब भी बड़े अजीब से हैं

जो दिन होते ही बदलते हैंरा

त की चादर ओढ़ के अक्सर 

धरती से लिपट कर सोते हैं

उम्मीदों के धागों में अपने 

सभी ख्वाबों को पिरोते हैं

ग़र वक़्त उनकी हद में होता 

तो क्या ऐसा वाकया होता

ये ख्वाब न होते तो क्या होता?

दिन बेचैनी लिए हजारों

और रात ख्वाब में कटती

ज्यों थोड़ा सा आगे बढ़ते हैं 

त्यों किस्मत तेज डपटती

फिर किस्मत के दरवाजे से

वे ख्वाब से बाहर आते हैं 

टूटी नींद के हर एक पहलू

उनको दुःखी कर जाते हैं

ग़र वक्त सच में उनका होता

तो उनका भी नामों -निशा होता

ये ख्वाब न होते तो क्या होता?

-सिद्धार्थ गोरखपुरी

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