ज़िंदगी- सुधीर श्रीवास्तव
May 09, 2022 ・0 comments ・Topic: poem sudhir_srivastava
ज़िंदगी
वाह री जिंदगी
तू भी कितनी अजीब
जाने क्या क्या गुल खिलाती है
कभी हंसाती, कभी रुलाती है
और तो और कभी जीने तो
कभी मरने नहीं देती।
जो जीवन चाहता है उससे छीन लेती है
जिसके जीवन में जीने के बहाने तक नहीं होते
उसे मरकर मुक्त भी होने नहीं देती।
जिंदगी के फलसफे में बड़ी भ्रांतियां हैं,
हम कुछ भी कहें
चाहे जितने तर्क, वितर्क करें
अपने अथवा औरों को
भरमाने के शब्दजाल बुनें।
परंतु जिंदगी दोधारी तलवार है
उससे भी आगे ये बिना संविधान के है,
ऊपर से इसकी धाराएं रोज रोज बदलती हैं,
कभी सलीके से नहीं बढ़ती हैं।
लाख कोई चाहे
जिंदगी सलीके से नहीं चलती है,
या यूं कहें चल ही नहीं सकती
हमेशा उलझाए रखती है,
जिंदगी बहानों की आड़ में आगे बढ़ती है
कभी रुकती भी नहीं है,
जिंदगी की कोई राह किसी को
पहले से पता भी नहीं लगती
पूर्वानुमान पर जिंदगी आगे बढ़ती
कभी हंसाती,कभी रुलाती
कभी मुंह चिढ़ाती, कभी ढेंगा दिखाती
तो कभी मजाक बनाती
अपनी ही रौ में आगे बढ़ती रहती
कभी नहीं ठहरती किसे के लिए
जिंदगी को समझने की कोशिश में
जिंदगी निकल जाती, खो जाती।
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